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नई धारा

पर उर्मिला कहती है––

रह चिर दिन तू हरी भरी ,
बढ़ सुख से बढ़, सृष्टि सुंदरी?

प्रेम के शुभ प्रभाव से उर्मिला के हृदय की उदारता का और भी प्रसार हो गया है। वियोग की दशा में प्रिय लक्ष्मण के गौरव की भावना उसे सँभाले हुए है। उन्माद की अवस्था में जब लक्ष्मण उसे सामने खड़े जान पड़ते हैं तब उस भावना को गहरा आघात पहुँचता है, और वह व्याकुल होकर कहने लगती है––

प्रभु नही फिरे, क्या तुम्हीं फिरे?
हम गिरे, अहो! तों गिरे, गिरे।

दंडकारण्य से लेकर लंका तक की घटनाएँ शत्रुघ्न के मुँह से मांडवी और भरत के सामने पूरी रसात्मकता के साथ वर्णन कराई गई हैं। रामायण के भिन्न भिन्न पात्रों के परंपरा से प्रतिष्ठित स्वरूपों को विकृत न करके उनके भीतर ही आधुनिक आंदोलनों की भावनाएँ––जैसे किसानों और श्रमजीवियों के साथ सहानुभूति, युद्ध-प्रथा की मीमांसा, राज्य-व्यवस्था में प्रजा का अधिकार और सत्याग्रह, विश्वबंधुत्व, मनुष्यत्व––कौशल के साथ झलकाई गई हैं। किसी पौराणिक या ऐतिहासिक पात्र के परंपरा से प्रतिष्ठित स्वरूप को मनमाने ढंग पर विकृत करना हम भारी, अनाड़ीपन समझते है।

'यशोधरा' को रचना नाटकीय ढंग पर है। उसमे भगवान् बुद्ध के चरित्र से संबंध रखनेवाले पात्रों के उच्च और सुंदर भावों की व्यंजना और परस्पर कथोपकथन हैं, जिनमें कहीं कहीं गद्य भी हैं। भाव-व्यंजना प्रायः गीतों में है।

'द्वापर' में यशोदा, राधा, नारद, कंस, कुब्जा इत्यादि कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की मनोवृत्तियों का अलग अलग मार्मिक चित्रण है। नारद और कंस की मनोवृत्तियों के स्वरूप तो बहुत ही विशद और समन्वित रूप में सामने रखे गए हैं।

गुप्तजीने 'अनघ', 'तिलोत्तमा' और 'चंद्रहास' नामक तीन छोटे छोटे पद्यबद्ध रूपक भी लिखे हैं। 'अनघ' में कवि ने लोक-व्यवस्था के संबंध में उठी