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हिंदी-साहित्य का इतिहास

प्रबंध-क्षेत्र में भी छायावाद की चित्रप्रधान और लाक्षणिक शैली की सफलता की आशा बँधा गए हैं।



श्री सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं का आरंभ सं॰ १९७५ से समझना चाहिए। इनकी प्रारंभिक कविताएँ 'वीणा' में, जिसमें 'हृत्तंत्री के तार' भी संग्रहीत हैं। उन्हें देखने पर 'गीतांजलि' का प्रभाव कुछ लक्षित अवश्य होता है, पर साथ ही आगे चलकर प्रवर्द्धित चित्रमयी भाषा के उपयुक्त रमणीय कल्पना का जगह-जगह बहुत ही प्रचुर आभास मिलता है। गीतांजलि का रहस्यात्मकता प्रभाव ऐसे गीतों को देखकर ही कहा जा सकता है––

हुआ था जब संध्या-आलोक
हँस रहे थे, तुम पश्चिम ओर
विहँगरव बन कर मैं, चितचोर!
गा रहा था गुण; किंतु कठोर
रहे तुम नहीं वहाँ भी, शोक।

पर पंत जी की रहस्य-भावना प्रायः स्वाभाविक ही रही। 'वाद' का सांप्रदायिक स्वरूप उसने शायद ही कहीं ग्रहण किया हो। उनकी जो एक बड़ी विशेषता है प्रकृति के सुंदर रूपों की आह्लादमयी अनुभूति वह 'वीणा' में भी कई जगह पाई जाती हैं। सौंदर्य का आह्वाद उनकी कल्पना को उत्तेजित करके ऐसे अप्रस्तुत रूपों की योजना में प्रवृत्त करता है जिनमें प्रस्तुत रूपों की सौंदर्यानुभूति के प्रसार के लिये अनेक मार्ग से खुल जाते हैं। 'वीणा' की कविताओं में इसने लोगों को बहुत आकर्षित किया––

प्रथम रश्मि का आना रंगिणि! तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ हे बाल-विहंगिनि! पाया तूने यह गाना?
निराकार तुम मानो सहसा ज्योतिपुंज में हो साकार?
बदल गया द्रुत जगज्वाल में धर कर नाम-रूप नाना।
खुले पलक, फैली सुवर्ण छवि, खिली सुरभि डोले मधु-बाल।
स्पंदन, कंपन, नव जीवन फिर सीखा जग ने अपनाना।