पृष्ठ:हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास.pdf/६३

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नहीं सकता। उनके शिष्य बहुत थे, आज तो वे करोड़ों की संख्या में हैं, पर, अनुकरण करने वाला कोई नहीं। शतियों के तरु-राजि वेष्टित आंतर पथ से , पीछे दृश्यावलोकन करने पर हमें अपने उज्ज्वल प्रकाश में खड़ी हुई उनकी उदात्त प्रतिमा हिंदुस्तान के रक्षक और पथ-प्रदर्शक के रूप में दिखाई देती है। उनका प्रभाव कभी भी समाप्त नहीं हुआ; नहीं, यह बढ़ गया है, और निरंतर बढ़ता ही जा रहा है; जब हम तंत्रारोहित बंगाल के भाग्य के सम्बन्ध में, अथवा रात्रि में उत्सव के रूप में मनाई जाने वाली उन चञ्चल जात्राओं के सम्बन्ध में सोचते हैं, जो कृष्ण भक्ति के नामपर निकाली जाती हैं, तब हम निश्चय ही और उचित रूप में इस महापुरुष की प्रशंसा करते हैं, जिसने बुद्ध के अनन्तर पहली बार मनुष्य को अपने पड़ोसियों के प्रति स्व-कर्तव्य सिखाया और अपने उपदेश को ग्रहण कराने में पूर्ण सफल भी हुआ। उनका महान काव्य-ग्रंथ इस समय १० करोड़ लोगों का एक मात्र धर्म ग्रंथ है और यह सौभाग्य की बात है कि इन्होंने यह पथ-प्रदर्शक पाया। यह आदर्श ग्रंथ के आदर्श उदाहरण रूप में समाद्दत है और इस प्रकार इसका प्रभाव केवल अशिक्षित जनता पर ही नहीं है, बल्कि साहित्यकारों की उस दीर्घ श्रेणी पर भी है, जिसने इनका अनुसरण किया है, और विशेषकर उस भीड़ पर है, जिसका रूप वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ में छापे की कलों के प्रयोग से एकाएक विस्तृत हो गया है। जैसा कि इस ग्रंथकर्ता के रामायण के अपने अनुवाद की भूमिका में श्री ग्राउस कहते हैं——"दरबार से लेकर झोंपड़ी तक, यह ग्रंथ सबके हाथों में है, और प्रत्येक वर्ग के हिन्दुओं द्वारा, वे चाहे बड़े हों या छोटे, धनी हों या निर्धन, बालक हों अथवा बूढे, पढ़ा जाता है, सुना जाता है और भली भाँति समझा जाता है।" इस कवि के सम्बन्ध में अन्य विशेष विवरणों की जानकारी के लिए पाठक मूल ग्रंथ की ओर आमंत्रित किया जाता है।

यह महान काल सूर की श्रृंगारी कविताओं और तुलसी की प्रकृति सम्बन्धी कविताओं का ही युग नहीं था, यह काव्यकला को सुव्यवस्थित करने वाले प्रथम प्रयास के कारण भी यशः प्राप्त हैं। इस नवांकुर ने प्रबल वेग से पल्लवित होने की प्रवृत्ति दिखलाई। मलिक मुहम्मद तक ने ऐसी कविताएँ लिखी थीं, जो अद्भुत रूप से संगीत-हीन थी। सूरदास और तुलसीदास में तो देवों की सी शक्ति थी और अपने सभी सम-सामयिकों से वे परिष्कार और अनुपात-ज्ञान में बहुत आगे थे, लेकिन अन्य प्रारम्भिक रचयिताओं की कृतियाँ उन विद्वानों के कानों में खटकती हैं, जो पूर्ण रूपेण संस्कृत पदावली के