हिन्दी साहित्यकी भूमिक निकृष्ट आसक्तिके ये शिकार हो चुके थे, अशिक्षित और संस्कृति-विहीन जनतामें Vवह रह चुके थे और काशीके दिग्गज पंडितों तथा सन्यासियोंके संसर्गमें उन्हें खून आना पड़ा था। नाना पुराण निगमागमका अभ्यास उन्होंने किया था और लोक-प्रिय साहित्य और साधनाकी नाड़ी उन्होंने पहचानी थी। पंडितोंने सप्रमाण सिद्ध किया है कि उस युगमें प्रचलित ऐसी कोई भी काव्य-पद्धति नहीं थी जिसपर उन्होंने अपनी छाप न लगा दी हो। चंदके छप्पय, कनीरके दोहे, सूरदासके पद, जायसीकी दोहा-चौपाइयाँ, रीतिकारोंके सबैया-कवित्त, रहीमके बरवै, गाँववालोंके सोहर आदि जितनी प्रकारकी छन्द-पद्धतियाँ उन दिनों लोकमें प्रसिद्ध थीं, सबको उन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभाके बलपर अपने रँगमें रंग दिया। . १ लोक और शास्त्रके इस व्यापक ज्ञानने उन्हें अभूतपूर्व सफलता दी। उनका सारा काव्य समन्वयकी विराट् चेष्टा है। लोक और शास्त्रका समन्वय, गाईस्थ्य और वैराग्यका समन्वय, भक्ति और ज्ञानका समन्वय, भाषा और संस्कृतका समन्वय, निर्गुण और सगुणका समन्वय, कथा और तत्त्व-ज्ञानका समन्वय, ब्राह्मण, और चाण्डालका समन्वय, पांडित्य और अपांडित्यका समन्वय,---राम- चरितमानस शुरूसे अखीरतक समन्वयका कान्य है। इस महान् समन्वयके प्रयत्नका आधार उन्होंने राम-चरितको चुना । वस्तुतः इससे अधिक सुन्दर चुनाव हो नहीं सकता। कुछ पश्चिमी समालोचकोंने कहा है कि कविता अच्छी करना, चाहते हो तो विषय अच्छा चुनो। राम-नामका प्रचार उन दिनों बड़े जोरोंपर। था। निर्गुण भावसे भजन करनेवाले भक्तोंने इस नामको ही अपनाया था। लोकमें। इस शब्दकी महिमा प्रतिष्ठित हो चुकी थी । तुलसीदासके लिए काम इतना ही बाकी था कि लोकगृहीत इस नामको मर्यादापुरुषके चरित्रसे संबद्ध कर दिया जाय। कृष्ण-भक्ति खूब प्रचलित थी, पर तुलसीदास मन ही मन मधुर भावकी उपासनापर झुंझलाये हुए थे। वे इसके विरुद्ध तो कुछ कह नहीं सकते थे, क्योंकि यह भी 'हरि-भक्ति-पंथ' था और उनके उद्भावित पथसे कम 'श्रुतिसम्मत'न था; पर उन्होंने भक्तिका प्रसंग आते ही दास्यभावकी भक्तिको श्रेष्ठ कहकर अप्रत्यक्ष रूपमें मधुर भावका प्रत्याख्यान कर दिया। निगुणियोंपर। भी वे उसी तरह झुंझलाये हुए थे, पर यह पथ भी श्रुति-सम्मत था, इसलिए इसके विरूद्ध बोलने में भी उनका मुँह बन्द था और इसीलिए वे इसे मान कर मी नहीं मानना चाहते थे। प्रसंग आवे ही वे रामके सगुण रूपपर जोर