हिन्दी साहित्यकी भूमिका प्रचार पाया जाता है। (१) पहली वे हैं जो पश्चिमी आर्यों में प्रचलित थीं: इनमें ऐहिकतापरक, संघर्षमय जीवनकी झलक है और (२) दुसरी ये हैं जो पूर्वी आर्यों में प्रचलित थीं। इनमें आध्यात्मिकता-प्रवण रूपकों और भाव-प्रणव घटनाओंका उल्लेख है। ये दोनों ही स्वाभाविक भावसे विकसित हुई हैं। इन्हींको हिन्दी साहित्यके प्रवीण पंडितोंने क्रमश: वीर-गाथा और प्रेम-गाथा नाम दिया है। दूसरी जातिकी गाथाओं या कथानकोंमें, जो मुसलमान कवियोंकी लिखी हुई हैं या यों कहिए कि जो उन हिन्दुओंकी लिखी हुई हैं जो किसी कारणवश एकाध पुश्तसे ही मुसलमान हो गये थे पर जिनमें हिन्दू-संस्कार पूरी मात्रामें थे----उनमें सूफी मतका प्रभाव भी पाया जाता है। ये दोनों प्रकारकी रचनायें हिन्दी साहित्यमें वर्तमान हैं और जो लोग अपभ्रंशके साहित्य में प्रतिबिम्बित भारतीय समाजको देखना चाहते हैं उनके लिए ये नितान्त आवश्यक है। बिना किसी प्रकारके प्रतिवादकी आशंकाके जोर देकर कहा जा सकता है कि मध्य-कालके आरंभके अन्धकारयुगीन भारतीय जीवनको इतनी सजीवतासे अभिव्यक्त कर सकनेका कोई दूसरा साधन नहीं है । नाना प्रकारकी लोक-चिन्ताओंके सम्मिश्रणका जो अध्ययन करना चाहते हैं उन्हें इस वीर-गाथा और प्रेम-माथाके साहित्यको अध्ययन करनेको निमंत्रित करता हूँ। इससे अधिक सरस, अधिक स्फूर्तिदायक और लोक-जीवनको समझने में अधिक सहायक साहित्यको मैं नहीं जानता। परन्तु इस लोक-भाषाका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग जिसने कि शीघ्र ही शास्त्रपंथी पंडितोको भी आकृष्ट किया वह उसका पहला अंग था। अलंकार- शास्त्र में उत्तम कविताके उदाहरणोंमें प्राकृतके और संस्कृतके ऐसे सैकड़ों सरस श्लोक उद्धत किये गये हैं । संस्कृतके सुभाषित-संग्रहों में भी ऐसे अनेक रत्न सुरक्षित हैं । इस जातिकी रचनाओंने संस्कृत और विशेष रूपसे प्राकृत साहित्यको एक अभिनव समृद्धिसे सम्पन्न किया है। यदि अलंकार-शास्त्रके आदि ग्रंथोंकी छानबीन की जाय तो स्पष्ट ही पता चलता है कि आरंभमें दो अत्यन्त स्पष्ट धारायें इस शास्त्रकी मौजूद थीं जो आगे चलकर एकमें मिल गई। एक प्रकारकी शास्त्रीय चिन्ता नाट्य-शास्त्रके रूपमें प्रकट हुई थी जिसका प्रधान प्रतिपाद्य रस था! दुसरी चिन्ता अलंकार-शास्त्रके रूपमें प्रकट हुई जिसका प्रधान विवेच्य विषय अलंकार थे।