उपसंहार प्रकट हो रहा है। व्यक्तिगत प्रेम-चर्चा विज्ञापनबाजी-सी मालूम होती है और मानवताके प्रति 'अति श्रद्धांजलि' रटी हुई सूक्तियोंका आकार ग्रहण कर गई है। हमने संसारको नई दृष्टिसे देखा जरूर है; पर साधना और संयमके अभावसे हमारी दृष्टि स्यापक नहीं हो सकी है। नकलकी प्रवृति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। इसके अपबाद भी है. और आशाका कारण इन अपवा- दोंकी बढ़ती हुई संख्या ही है । सही बात, जैसा कि रवीन्द्रनाथने कहा है. शायद यह है कि-"यूरोपका साहित्य और यूरोपका दर्शन मानस-शरीरको सहल नहीं देता, केवल धक्का - मार देता है। चूरोपकी सभ्यता चाहे अन्त हो, दिन हो, या हालाहल हो, उसका धर्म ही है मनको उत्तेजित करना, उसे स्थिर न रहने देना। इसी अंग्रेजी सभ्यताके संस्पर्शस हम समूचे देशके आदमी जिनकली एक दिशा चलने के लिए तथा अन्य लोगोंको चलाने के लिए छटपटा उठे हैं। स बातकी एक बात यह कि हम उन्नतिशील हो या अवनतिशील, लकिन हम सब गति- शील जरूर है.--कोई स्थितिशील नहीं हिन्दी साहिथिक भी गतिशील हैं: पर हजारों वर्षकी पुरानी सम्पातको छोड़ देनेके कारण हमारी गति सदा बांछित दिशाकी ओर ही नहीं जा रही है। फिर भी इस बातको कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि हम एक जीवित जातिके संपर्शमें आये है, और जीवनके आघातसे ही जीवनकी स्फूर्ति होती है। हजारों वर्षके सुषुप्त देशके जगानेमें भी कुछ समय लगेगा । आजकी गतिशीलता वांछित दिशामें हो या अवांछित दिशामें, बद्द हमारे जागरणका निश्चित सक्त है। जो लोग इसे आशंका और भयकी दृष्टिसे देखते हैं, वे गलती करते हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि 'पुराणमित्येव न साधु सर्वम्' और जो लोग इसे आत्यन्तिक उन्नति समक्ष कर झूमने लगते हैं, वे और भी गलती करते हैं: क्यों कि उन्हें महसूस करना चाहिए कि सभी पुरानी चीजें सहाही नहीं करती।। एक दूसरी महत्त्वपूर्ण सम्पत्ति भी है, जिसे हमने नवीनताके नशेमें छोड़ दिया है। वह है हमारी सुदीर्घ साधनालन्ध दृष्टि । अपने काज्यके अभिधय अाँकी सीमा पार करके जित प्रकार हमारा कवि एक अन्य अर्थका'