जिन बहुतसे विष्योंके संबंध, गत २५-३० वर्षोंमें दुनियाका दृष्टिकोण
बदल गया है, उनमें साहित्यकी आलोचना और उसका इतिहास भी एक है।
जिस तरह इतिहासके सम्बन्धमें लोगोंका ख़याल था कि उसे बनानेवाले कुछ
राजे-महाराजे और सेनानी हुआ करते हैं और उनके नामोंकी सूची तथा
उनके पैदा होने, राज करने, जीतने और हारनेकी तारीखोंकी सूची दे देने
मात्रसे इतिहास-लेखकके कर्तव्यकी इतिश्री हो जाती है, उसी तरह भाषा और
उसके साहित्यके इतिहासके सम्बन्धमें भी था। तब पुराने लेखकों और कवियोंके
नामोका संग्रह करनेमें विशेष परिश्रम किया जाता था और फिर उनकी
रचनाओंके अधूरे नमूने तथा तारीफके कुछ शब्द जोड़कर उनका गलत-सही
वर्गीकरण कर दिया जाता था।
पर, जैसे जैसे सब विषयोंपर वैज्ञानिक ढंगसे विचार होने लगा है, वैसे वैसे यह बात स्पष्ट होने लगी है कि संदर्भके लिहाजसे ये बातें भले ही जरूरी हों, और इसके लिए संसार उन लेखकोंका सदैव ऋणी रहेगा, पर इनसे किसी भाषाके साहित्यमें वह अन्तर्दृष्टि प्राप्त नहीं हो सकती जिसके पाये बिना साहित्यका अध्ययन निष्फल हो जाता है। प्रत्येक देशका साहित्य, समाज, संस्कृति और चिन्तन, एक अविच्छिन्न विकास-परंपराका और उसमें होनेवाली क्रिया-प्रतिक्रियाओंका प्रतिबिम्ब हुआ करता है जिसे गति देने में भौगोलिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और वैयक्तिक कारण काफी हिस्सा लेते हैं ! जब तक इन बातोंका ज्ञान नहीं होता, तब तक साहित्यके इतिहासको पढ़नेका डिक्शनरीको याद करनेकी अपेक्षा अधिक मूल्य नहीं हो सकता।
मेरी बहुत समय से इच्छा थी कि हिन्दी साहित्य के बारे में इस नवीन दृष्टि- कोणसे कोई ग्रन्थ लिखा जाय । इस पुस्तकके द्वारा यह इच्छा कुछ अंशों में