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यह शून्य शब्द बहुत मनोरंजक है । बौद्ध महायान दार्शनिक की दो शाखायें हैं । एक मानती है कि संसारमें सब कुछ शून्य है, किसीकी भी सच नहीं और दूसरी शाखाबाले मानते हैं कि जगतुके सभी पदार्थ बाह्यतः असत् हैं पर चिंतकै निकट सभी सत् हैं। एकको शून्य-बाद कहते हैं और दूसरीको विज्ञान-वाद । नागार्जुनने शून्यकी व्याख्या करते हुए कहा है कि इसे शून्य भी नहीं कह सकते, अशून्य भी नहीं कह सकते और दोनों (शून्य और अन्य ) भी नहीं कह सकते। फिर यह भी नहीं कह सकते कि वह शून्य भी नहीं है और अशून्य भी नहीं हैं। इसी भावकी प्रज्ञप्तिके लिए शून्यताका व्यवहार होता है---- शून्यमिति न वक्तव्यम् अन्यामति वा भवेत् । । उभये नेभयं देति, प्रज्ञप्त्यर्थं तु कश्यते ।। । इस प्रकार यह सिद्धान्त बहुत कुछ अनिर्वचनीयता-वादका रूप ग्रहण कर लेता है। महायान मतकी प्रज्ञापारमिताओंकी थका देनेवाली पुनरुक्तियोंमें बारबार यही दुहराया गया है कि वह यह भी नहीं है, वह भी नहीं है *। यह शून्यवाद इतना प्रचलित हुआ कि उस युगके सभी साधक इस कान्यको प्रयोग करने लगे । सने अपने अपने मतानुकूल अर्थ किये । चोगियोंके षट्चक्रुके सबसे ऊपरी चक्रको शून्य-चक्र व सहलुदल पद्म कहते हैं । इस प्रकार योगियोंने भी शून्यको ही परम लक्ष्य भादा है पर उसका अर्थ बदल कर। कबीरदास आदि निर्गुण मतके साधकों ने भी इस शब्दका व्यवहार अपने अपने ढंगपर किया है। अध्यापक क्षितिमोहन सेनने दाइकी अनेकानेक वाणियोंकी जाँच करने के बाद देखा है कि दादूका शून्य ‘कुछ नहीं तो है ही नहीं, अधिकन्तु, वह ‘पूर्ण सरोवर रिमा-सरोवर' और 'हरि-सरोवर' है। दादुके टीकाकारनि केही ऋन्य शब्दको अर्थ शान्त निर्वाण पद किया है और कहीं क्लय लीन समाधिकी अवस्था । इस विषयमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि शास्त्रज्ञानसे वंचित होने पर भी इस श्रेणीके साधक बहुश्रुत थे | इस बहश्रुतताके कारण वे अनायास ही अनुभसम्मत सत्यको संग्रह कर सकते थे। इसी लिए उनका मत न तो किसी अचा विशेषके मतका हू-ब-हू उल्था है और न बेसिर-पैरकी बातोंकी बेमेल खिचड़ी। सभी विषयोंमें उनका आत्मोपलब्ध मत है । वेदान्तियोंके निर्गुण ब्रह्म उनके उपास्य नहीं है क्योंकि उन्होंने एकाधिक बार उसमें नापाको आरोथ किया है।
- देखिय, परिशिष्टः बौद्ध साहित्य ।