सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हितोपदेश.djvu/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विग्रह ११३ 4 - वीरवर : यह भी कोई कठिन काम है देवी? जैसी आपकी आज्ञा। लक्ष्मी अन्तर्ध्यान हो गई । वीरवर अपने निवास स्थान की ओर उसी समय चल दिया। शूद्रक राजा भी उसी के पीछे चला । घर पहुँचकर वीरवर ने अपनी पत्नी एवं अपने पुत्र को सोते से जगाया। वीरवर ने आदि से लेकर अन्त तक की सारी सच्ची कहानी दोनों को सुना दी। पिता की वात सुनकर भक्ति- घर प्रसन्न होकर बोला : पिताजी, मै धन्य हूँ जो अपने राज्य और स्वामी के लिए काम आ रहा हूँ। अब आप विलम्ब न कीजिए । मुझे गीघ्र ही भगवती के मन्दिर में ले चलिए । शास्त्रों में लिखा है- धनानि जीवितं चैव परार्थे प्राज उत्सृजेत् । वृद्धिमान् पुरुष को चाहिए कि परोपकार के लिए अपना धन और जीवन दोनों का समर्पण करदे । फिर यह तो अपना ही काम है। शक्तिघर की मां वोली, यदि हमने इस समय भी बलि न दी तो इस राज्य का इतना वेतन क्यो ले रहे है ? पुत्र और पत्नी की बात सुनकर वीरवर बहुत प्रसन्न हुआ । अपने पुत्र के सिर पर हाथ फेरते हुए बोला . पुत्र, मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी। तुमने आज हमारे वग का मस्तक ऊंचा कर दिया। वीरवर उन दोनो को साथ लेकर भगवती के मन्दिर मे गया। राजा भी दीवार की आड़ में खड़ा होकर इनका कृत्य देखने लगा। वीरवर वोला : भगवती ! आप प्रसन्न हो । महाराज शूद्रक को जय हो ! "i