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पृष्ठ:हितोपदेश.djvu/१३२

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६ ७ शेखचिल्ली अनागतवती चितां कृत्वा यस्तु प्रहृष्यति स तिरस्कार माप्नोति भविष्य के कल्पित-मनोरथो से ही जो व्यक्ति फूला नहीं समाता उसे प्रायः नीचा देखना पड़ता है। . . . देवीकोट नाम के नगर में देवशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था । यजमानों के दान से उसकी आजीविका चलती थी। संक्रांति के दिन उसे किसी यजमान ने एक सत्तुओं से भरा सकोरा दिया। उसे लेकर देवशर्मा अपने घर वापस चल दिया। ज्येष्ठ, आषाढ़ की गर्मी थी। नीचे से मार्ग की गरम- गरम मिट्टी उसके पैर जला रही थी और ऊपर से जलता हुमा सूर्य उसके सिरपर आग बरसा रहा था । इस धूप से वचने के लिये उसने आस-पास छाया के लिये अपने नेत्र दौड़ाए। उसे एक ओर एक कुम्हार का घर दिखाई दिया । उसे तो मानो डूबते को घास का सहारा मिल गया। कुम्हार के घर के पास ही मिट्टी के बर्तनों का बड़ा भारी ढेर लगा हुआ था । उसने अपना सत्तू का स्कोरा वहां रखा और हाथ मे ( १३९)