मित्रलाभ दीर्घकर्ण की बात सुनकर जरद्गव कुछ गान्त हुआ और वोला मै यही गंगाजी के पावन तट पर निवास करता हूँ। आज- कल प्रात काल स्नान आदि के उपरान्त थोड़ा-सा फलाहार ग्रहण कर लेता हूँ। तत्पश्चात् पाठ-पूजा मे संलग्न हो जाना हूँ। इसी भांति मैने आजकल चान्द्रायण व्रत धारण किया हुआ है। . कुछ रुककर दीर्घकर्ण फिर बोला - मुने इसी तरह यहाँ रहते काफी समय बीत गया है। जब से मै इस वन मे जाग हूँ अनेक पक्षियो के मुंह से आपके ज्ञान तथा अध्ययन को प्रनमा कई वार सुन चुका हूँ। मेरी कई दिनो से आप जने महा- त्माओं के साथ जान-चर्चा करके कुछ ज्ञान प्राप्त करने की अभिलापा थी। आज आप जैसे विद्या-वृद्ध एव वयो-वृद्ध महा- नुभाव के दर्शन करके मुझे असीम शान्ति प्राप्त हुई । एक बात वा फिर दुवारा कहूँगा कि मै तो आपकी सेवा में कितनी श्रद्धा और विश्वास लेकर आया था। पर आप तो मेरे आते ही पह वीच मे ही दीर्वकर्ण की बात काटकर जरद्गव बोला छोडो भी इस बात को। दीर्घकर्ण हंसते हुए बोला . आप अब टमको चिन्ता करे। वह तो भ्रम था । आपका स्वभाव तो महान् व्यक्तियों सा है। महान् लोग वृक्ष की भाति होते हैं। जैसे कोई भी । शरीर काटनेवाले लकडहारे के आने पर अपनी छाया ही समेट लेता अपितु सव को समभाव से देखता है; इनी ति आपको तो शत्रु से भी वैर नहीं है । और फिर- निर्गुणेष्वपि सत्येषु दयां कुर्वनि सापकः । 1 ३