सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हितोपदेश.djvu/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

युक्ति से काम छो

उत्पन्नेप्वषि कार्येषु-सततिर्यत्य न हीयते।

संकट उपस्थित होने पर भी जिसकी वृद्धि

विचलित नही होती, बह कार्य में सफल हो जाता है ।

6 ० 0 द्

किसी वृक्ष पर एक कौआ सपत्तीक रहता था । वह बहुत पुराना वक्ष था । उसके खोखले मे एक सर्प भी रहने लगा। एक वार कौए- के बच्चों को साँप ने खा लिया । कौआ और उसकी पत्नी को इस घटना से वहुत दुःख हुआ। पर बे सर्प का कुछ विगाड न सके | क्योकि वह उनसे अधिक बलवान था |

कुछ समय बाद कौए की पत्नी फिर से गर्भवती हुईं और कौए से बोली : मे

स्वामी, अब हमे शीघ्र ही यह वृक्ष छोड़ देना चाहिए | क्योकि सुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पुत्रों के जन्म लेते ही यह दुप्ट उन्हें अवब्य खा जायेगा । मुझे तो अभी से उनकी रक्षा की चिन्ता सता रही है ) भास्त्रों में कहा भी है---

ससपपे च गृहे वासः सुत्युरेव न संजयः ।

( ७० )