पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

'२० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय की तरह स्वसं साध्य न होकर वह 'मनमारण' के द्वारा वैतभावना का नाशकर 'बका' अथवा 'अपरोक्षानुभूति' का साधन है। प्रसिद्ध सूफी फकीर बायजीद ने 'फ़ना' का सिद्धांत अबू अली से सिंध में सीखा था । अबू अली को प्रणायाम की विधि भी मालूम थी, जिसे वे पास-ए-अन- फ्रास कहने थे। सूफियों पर भारतीय संस्कृति का इतना प्रभाव पड़ा था कि उनके दिल की मूर्ति के लिये भी विरोध न रह गया था और वे 'बुन' के परदे में भी खुदा को देख सकते थे। प्रभाव चाहे जहाँ से आया हो, इतना स्पष्ट है कि हिंदू विचार-परंपरा और सूफी विचार- परंपरा में अत्यंत अधिक समानता थी। विचार-परंपरा को इस समानता ने स्वभावतः उन्हें हिंदुओं की ओर कृष्ट किया। उन्होंने हिंदुओं से खूब मेल-जोल बढ़ाया। हिंदू साधुओं का उन्हें सत्संग प्रात हुआ, हिंदू घरों से भी उन्होंने भिक्षा प्राप्त की हिंदुओं के जीवन को उन्होंने विजेता की ऊँचाई से नहीं, बल्कि सहृदयता की निकटता से देखा। उनकी विपत्ति के लिए उनके हृदय में सहानुभूति का स्रोत उमड़ पड़ा। अपने सधर्मियों की उठी हुई तलवार के प्रहार को उन्होंने अपने ही ढंग पर रोकने का प्रयत्न किया। उन्होंने उनकी तर्क- बुद्धि पर असर डालने का प्रयत्न नहीं किया, उनके हृदय की भावुकता को उद्दीप्त कर यह काम करना चाहा। हिंदू-हृदय की सरल सुषमा को उन्होंने उनके समक्ष उद्घाटित कर मुस्लिम हृदय के सौंदर्य को प्रस्फुटित करना चाहा । अतएव उन्होंने मौलाना रूमी की मसनवी के ढंग पर हिंदू जीवन की मर्म-स्पक्षिणी कहानियाँ लिखकर भारतीयों की बद्धमूल संस्कृति की मनोहारिणी व्याख्या की । हिंदी की ये पद्य कहानियाँ अँगरेजी साहित्य के रोमांटिक आंदोलन की समकक्ष हैं। इन कहानियों का लिखा जाना कब और, किसके द्वारा प्रारंभ हुआ, इसला अभी ठीक-ठीक पता नहीं। सबसे पुराना ज्ञात प्रेमाख्यानक कवि मुल्ला दाऊद मालूम होता जो अलाउद्दीन के राजत्वकाल में वि० सं० १४६७ के आस-पास विद्य- ।