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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१४४

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६४ हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय पहुँचा । उसका स्वामिभक्त सेवक मरदाना, जहाँ-जहाँ वह वह गया वहाँ-वहाँ, छाया की तरह उसके साथ गया। उनका सबसे अधिक प्रभाव पंजाब प्रांत में रहा जो उस समय इस्लाम का गढ़ था। नानक को यह देखकर बड़ा दुःख होता था कि मिथ्या और पाषंड का जोर बढ़ रहा है । "शास्त्र और वेद कोई नहीं मानता । वह अपनी-अपनी पूजा करते हैं । तुरकों का मत उनके कानों और हृदय में समा रहा है लोगों की जूठन तो खाते हैं और चौका देकर पवित्र होते हैं-देखो यह हिंदुओं की दशा है"। एक हिंदू चुंगीवाले से उसने कहा था- गो-ब्राह्मण का तो तुम कर लेते हो । गोबर तुम्हें नहीं तार सकता। धोती टीका लगाये रहते हो, माला जपते हो, पर अन्न खाते हो म्लेच्छ का । भीतर तो पूजा-पाठ करते हो, किंतु तुरकों के सामने कुरान पढ़ते हो। अरे भाई ! इस पाषंड को छोड़ दो और भगवान् का नाम लो जिससे तुम तर जाओगे।"+ यदि वस्तुतः देखा जाय तो नानक उन महात्मानों में से थे जिन्हें हम संकुचित अर्थ में किसी एक देश, जाति अथवा धर्म का नहीं बतला सकते । समस्त संसार का कल्याण उनका धेय था । इसीलिए उन्होंने

  • सासतु वेद न माने कोई । आपो आप पूजा होई ॥

तुरक मंत्र कनि रिदै समाई । लोकमुहावहि छाँडी खाई ॥ चौका देके सुच्चा होई । ऐसा हिंदू देखहु कोई ॥ आदि ग्रंथ, पृ० १३८ । + गऊ बिरामण का कर लावहु, गोबर तरण न जाई । घोती टीका ते जपमाली, धानु मलेच्छा खाई ॥ अंतरिपूजा, पढ़हिं कतेना संजमि तुरुकां भाई। छोडिले पखंडा, नामि लइए जाहि तरंदा ॥ --'ग्रंथ', पृ.० २५५।