पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१४८

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C ६८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय गोव्यंद। चौथे पद में जन का ज्यंद।" विहारी दरिया ने भी इससे यही अभिप्राय माना है- अछे वच्छ ग्रोह सुरुष हहि जिंदा अजर अमान : मुनिवर थाके पंडिता: वेद कहहि अनुमान ।। किंतु ज्ञान प्राप्त हो जाने पर प्रत्येक संत मुक्त पुरुष (जीवन्मुक्त) हो जाता है और जिंदा कहला सकता है। कई हिन्दू साधु भी अपने को जिंदा फकीर कहा करते थे। कबीरपंथ की छत्तीसगढ़ी शाखावाले कबीर को भी जिंदा फकीर कहते हैं। बाबा जिंदा के संबंध में भाई वाला नानक से कहलाया है "जित्थे तोड़ी पवन और जल है, सब उसद बचन बिच चलते हैं।" जिंदा बाबा के गुरुत्व के संबंध में व्याख्या करते हुए एक मुगल फकीर के प्रति भाईजी ने नानक से कहलाया है-"यक खुदाय पीर शुदी कुल अालम मुरीद शुद्री" = इन स्थलों से तो यही जान पड़ता है कि उनमें जिंद का अर्थ परमात्मा ही किया गया है। उनमें नानक अपने गुरु को परमात्मा नहीं बल्कि परमात्मा को अपना गुरु बतला रहे हैं अर्थात् नानक स्वतः संत थे, उन्हें गुरु धारण करने की कोई आवश्यकता न थी। कबीर मंसूर से यह भी जान पड़ता है कि भाई बाला के अनुसार नानक ने बाबर से कहा था कि मैं “कलंद कबीर" का चेला हूँ जिसमें तथा परमेश्वर में कोई भेद नहीं है । यदि कबीर मंसूर में इस अवतरण

  • क० ०, पृ० २१० ।
सं० बा० सं०. भाग १, पृ० १२३ ।

+ जनमसाखी, पृ० ३३६ । वही, पृ० ३४६ ॥ ४ जनमसाखी, पृ० ३६६ । .