दूसरा अध्याय ८३ का क्षत्रिय था। जब वह दो हो वर्ष का रहा होगा, तभी औरङ्गजेब ने पहले सतनामी संप्रदाय को ध्वंस कर डाला था। जगजीवन का पिता किसान था। एक दिन जब जग्गा गोरू चरा रहा था तो बुल्ला और गोविंद दो साधु उस रास्ते से आये। उन्होंने जग्गा से तंबाकू पीने के लिए प्राग मँगवाई। जग्गा गाँव से आग तो लाया ही, साथ हो उनको पिलाने के लिये दूध भी ले आया। थोड़ो हो देर के सत्संग से वह साधुओं को बहुत प्रिय हो गया और उसके हृदय में भी वैराग्य जाग गया। परन्तु साधुओं ने उसे इस छोटी उमर में शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया; किंतु अपने सत्संग और स्नेह की स्मृति के रूप में उन्होंने उसे एक-एक धागा दे दिया, एक ने काला और दूसरे ने सफेद । जगजीवन के अनुयायी इस घटना को स्मृति में अपने दाहिने हाथ की कलाई पर एक काला और एक सकेद धागा बाँधते हैं जो 'श्रादु' कहलाता है । भीखापंथी इन्हें गुलाल साहब की परंपरा में मानते हैं परंतु अपने संप्रदाय में ये विश्वेश्वर पुरी के चेले माने जाते हैं। इन्होंने शुद्ध अवधी में रचना की । इनकी शब्दावली प्रकाशित हो चुकी है। ज्ञान प्रकाश, महाप्रलय और प्रथम ग्रन्थ भी इनकी रचनाएँ हैं जो अब तक प्रकाश में नहीं आई हैं। इनके चलाये सत्तनामी संप्रदाय पर जनसाधारण के धर्म का विशेष प्रभाव पड़ा है। यह प्रभाव उनके शिष्य दूलमदास में अधिकता से दिखाई पड़ता है। दूलमदास ने हनुमान्जी, गंगा और देवी भगवतो की प्रार्थना गाई है । दूलमदासजी की बानी भी प्रकाश में आ चुकी है। उनकी कविता में शक्ति और प्रवाह दोनों विद्यमान हैं। पलटूदास जाति के काँदू बनिया थे। इनका जन्म फैजाबाद जिले के नागपुर (जलालपुर) में हुआ था। वे अयोध्या में रहते ११. पलटूदास थे। इन्होंने गुलाल के शिष्य गोविंद से दीक्षा ली थी। भजनावली में इनका परिचय इस प्रकार दिया गया है-
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