पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२५१

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तीसरा अध्याय युद्ध करने में अपना संपूर्ण जीवन बिताया है, जिन्होंने किसी ईश्वरीय संदेश को अपने जीवन में कार्य रूप में परिणत किया है । वह ऐसे श्रादर्श जीवन के प्रति समस्त जाति की हार्दिक श्रद्धा और प्रेम को अंजलि है। कौन व्यक्ति इस पद के उपयुक्त है, जातीय मस्तिष्क इस बात का निर्णय तब तक नहीं कर सकता जब तक वह व्यक्ति स्वयं इस संसार में विद्यमान है। श्रद्धा की यह अंजलि किसी व्यक्ति विशेष को नहीं बल्कि उसकी स्मृति को अर्पित की जाती है। अतएव अवतार-पद को वह अपने स्वार्थ के लिए प्रयुक्त नहीं कर सकता। यह भी बात नहीं कि सूक्ष्म अवतारवाद में ब्रह्म अथवा परमात्मा का सचमुच रक्त-मांस के मनुष्य के रूप में उतरना माना जाता हो । असल में निर्बल मनुष्य परमात्मा के हाथों को अपने बीच में काम करता हुआ देखना चाहता है । इससे उसको अप्रतिकार्य रक्षा की अाशा होती है। स्वयं मनुष्यों के बीच में परमात्मा की अनुपस्थिति की कल्पना से मनुष्य को सुरक्षितता की भावना और हार्दिक तृप्ति होती है। अतएव मनुष्य अपने हृदय की तृप्ति और इस आशा के आधार की रक्षा के अर्थ सत् की रक्षा में किये गये महत्व के कार्यों में सदैव परमात्मा का हाथ देखता आता है। अतएव अवतार वास्तविक स्थूल रूप में नहीं, बल्कि सूक्ष्म रहस्य रूप में अवतार हैं । परंतु पीछे जब इस रहस्यमय भावना का त्याग हो गया और अवतार वास्तिविक स्थूल अर्थ में अवतार समझे जाने लगे और यह माना जाने लगा कि परमात्मा शरीर धारण कर विशेष रूप से इन्हीं अव- तारों के रूप में अवतरित हुआ है तो अवतारवाद का वह मूल तात्विक अर्थ नष्ट हो गया जो समस्त मानवजाति के सामने महत्व का अभिनव मार्ग खोले हुए था और उसके विरोध के लिए जगह निकल आई। जो लोग ईसा को शारीरिक अर्थ में ईश्वर का पुत्र मानते हैं उनके हाथों ईश्वर के पुत्रत्व की भी ऐसी ही दुर्गति हुई है। किंतु मूल अर्थ में अव- तारवाद और ईश्वर की पुत्रता दोनों सिद्धांत नितांत उपयोमो हैं । .