The १८६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय भी जायँ । इस प्रकार जब तक धीरे-धीरे ऊपर उठते हुए हमें उस स्थिति की अनुभूति न होने लगे जहाँ पर सुरति केवल स्मृति के रूप में ही न रहकर उस भगवत्तत्व की पूर्णता में विलीन हो जाती है, तबतक सुरति की उपेक्षा उचित नहीं कही जा सकती। सुरति के अभ्यास और अनुशीलन में ही हमारा वास्तविक कल्याण इन्द्रिय परक जीवन से मुक्ति पाने की आवश्यकता आध्यात्मिक जीवन वा प्रत्यावर्तन की मात्रा को हमारे लिए कबीर के अनुसार इतना .: कठिन बनाती है जितना सूली के ऊपर नटविद्या का 'मध्यममार्ग अभ्यास करना है क्योंकि उसमें यदि खिलाड़ी पृथ्वी पर गिर पड़े तो, उसे दर्शकों द्वारा नष्ट कर दिया जाना तक सम्भव हो सकता है। क्योंकि साधक यदि आदर्श शुद्ध जीवन व्यतीत न कर पावे तो, उसे निश्चय ही अपनी उन संसारी काल्पनिक वासनाओं का शिकार होना पड़ेगा जो उस पर अचानक टूट पड़ने की ताक में रहा करती हैं और, यदि ऐसा हो जावे तो, आध्यात्मिक जीवन का नाश अवश्यम्भावी है। अनेक सम्प्रदायों ने उक्त स्थिति से बचने के लिए बड़े विषम साधनों की व्यवस्था की है। इन्द्रिय परक जीवन से अपने मन को दूर करने के लिए तप के अभ्यास और सांसारिक प्रलोभनों से विरत होकर आश्रमों वा वनों में गमन का आश्रय लिया जाता है। मध्ययुगीन ईसाई संवों के लिए कहा जाता है कि वे अपने शरीर को बड़ी निर्दयता के साथ पीड़ित करते थे। हिन्दू लोग तो ऐसी मृत्यु तक का आवाहन करते थे जो अारों द्वारा शरीर के दो टुकड़ों में चीरने के कारण होती हो और वह स्थान जहाँ पर यह कार्य फ़ीस
- कबीर कठिनाई खरी, सुमिरतां हरिनाम ।
सूली ऊपर नटकला, गिरनो नाहीं ठाम ॥ क. ग्रं. । ७, २६