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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२७९

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चतुर्थ अध्याय १६६ तो व्यर्थ ही हैं। और फिर-“साधु की देह निराकार के दर्पण की तरह है, यदि अलख को तुम्हें लखना है तो उसे वहीं पा सकोगे।"+ दादू ने भी कहा है कि "साधुओं के प्रसंग-द्वारा परमपद तक हमारे निकट आ जाता है और हम वहाँ सरलतापूर्वक पहुँच सकते हैं। उनका सत्संग कभी निष्फल नहीं जाता।" और "केवल साधुओं के सत्संग में ही सच्चे प्रेम का स्वाद मिलता है अन्यत्र कहीं हूँढने पर भी मुझे वह उपलब्ध नहीं हुआ। यदि तुम राम के मिलन के लिए उदास हो तो उन्हीं के निकट खोजो, राम वहीं रहा करते हैं । निर्गुणी लोग सचमुच किसी संयोग से साधु के संपर्क में श्रा जाने को भगवान् की दया का प्रारम्भ समझा करते हैं । दादू का कहना है कि-"साधु के संपर्क में आने पर ही अपने हृदय में भगवान के प्रति | कबीर दरसन साध का साईं आवै याद । लेखे में सोई घड़ी बाकी के दिन बाद ।। २० ।। सं० बा० सं०,१०२८ । + निराकार की प्रारती साधोंहीं की देह । लखा चहै जो अलखको इनही में लखि लेह ।। १६ वही । दादू नेड़ा परम पद, साधू संगति माहि । दादू सहजै पाइए, कबहूँ निरफल नाहिं ॥ १४ ॥ बानी, प० १५६। = दादू पाया प्रेम रस, साधू संगति माहिं । फिरि फिरि देखें लोक सब पाया कतहूँ नाँहि ।। ३३ ।। वही, पृ० १००। राम मिलन के कारणे, जो तू खरा उदास । साधू संगति सोधि ले, राम उन्हीं के पास ॥ ११५ ।। वही पृ० १६८ ।