२१२ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय गुरु के लिए भी यह आवश्यक है वह शिष्य से कुछ भी प्राप्त करने की अभिलाषा न करे। केवल उसे निस्वार्थभाव से उपदेश देने का ही प्रयत्न करता रहे। “शिष्य सर्वप्रथम अपना शिर, हृदय और मन को समर्पित करे और तब गुरु अपनी ओर से शिष्य की नामरूपी भेंट प्रदान कर देवे।" गुरु एवं शिष्य को उक्त मनोवृत्तियाँ नितांत आवश्यक हैं। उन्हें अर्पित करके शिष्य भगवान के प्रति अपने को समर्पित कर देना सीखता है और उसे स्वीकार न करके गुरु यह दिखलाता है कि किस प्रकार गुरु अपनी मर्यादा को नष्ट होने एवं ज्ञान को भ्रष्टाचार होने से बचा सकता है। ... गुरु को अपने शिष्य के प्रति दयालु होना परमावश्यक है। उसे अपनी कृपा प्रदर्शित करते समय, बहुत सावधान रहना चाहिए और देखते रहना चाहिए कि शिष्य के अंदर किसी त्रुटि का प्रवेश तक न होने पावे । जब उसे ऐसी किसी त्रुटि का पता चल जाय तो उसे चाहिए कि उसे शीघ्र दूर कर देवे और ऐसा करते समय उसका कठोर बन जाना अनावश्यक है परन्तु यदि वह अपने व्यवहार में कुछ रूखा भी हो जाय तो, शिष्य को उसे हवपूर्वक सहन कर लेना चाहिए। क्योंकि गुरु (ने वास्तव में उसी के हित की भावना से वैसा किया था । 'गुरु कुम्हार (और शिष्य घड़े की भाँति होते हैं। गुरु बर्तन की बुराइयों को ठोक-ठोक कर सुधारता रहता है, भीतर से वह अपने हाथ का सहारा देता है और ऊपर चोट भी मारता जाता है।" ® पहले दाता सिष भया, जिन तन मन अरपा सीस । पीछे दाता गुरु भये, जिन नाम दिया बकसीस ॥ सं० बा० सं०, पृ० २५ । गुर कुमार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट । अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ।। सं० बा० सं०, पृ० २ ।
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