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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३२

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अनेक विद्वानों की भी धारणा भ्रांतिपूर्ण हो गई थी। इनकी बानियों को ऐसे लोग अत्यन्त साधारण व नीरस पद्यों में गिना करते थे वीर इनमें उन्हें कोई संगीत वा नवीनता भी नहीं दीख पड़ती थी। संत लोग इनके समक्ष कतिपय निम्नश्रेणी की जातियों में उत्पन्न अशिक्षित व्यक्ति थे जिन्हें प्राचीन धर्मग्रंथों अथवा शास्त्रादि का कुछ भी ज्ञान नहीं था और जिन्हें इसी कारण, सच्चे मार्ग की पहचान तक नहीं हो सकती थी। ये उनके लिए सर्वसाधारए में घूम-फिर कर ऊटपटांग बातों का प्रचार करनेवाले निरे साधू वा फकीर-श्रेणी के लोग थे और इनके उपदेशों का कोई सुदृढ़ अाधार वा उद्देश्य भी नहीं था । संतों की बानियों में बिखरे हुए विचारों की संगति वे, किसी पूर्वागत विचारधारा से, लगा पाने में प्रायः असमर्थ रहा करते थे और इस कारण, उन्हें इनमें कोई व्यवस्था नहीं दीख पड़ती थी और इनकी सारी बातें उन्हें किन्हीं अस्पष्ट व क्रमहीन बातों का संग्रहमात्र प्रतीत होती थीं। अतएव, संतपरम्परा, संतसाहित्य वा संतमत की ओर उनका ध्यान पहले एक प्रकार की उपेक्षा का ही रहता चला आया था। इस दिशा में उनके ध्यान का सर्वप्रथम उस समय से आकृष्ट होना आरम्भ हुआ जब संतों की बानियों का यत्र-तत्र संग्रह किया जाने लगा और इस प्रकार के ग्रंथ कभी-कभी प्रकाशित भी होने लगे। विक्रम की बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही वास्तव में संतों और उनकी कृतियों की क्रमशः प्रकाश में आना प्रारम्भ हुआ । उस के पहले डा० विल्सन के 'ए स्केच आव दि हिन्दू सेक्ट्स' ('A sketch of the Hindu sects' ), सं० १८८८ में उनके विषय में थोड़ा-बहुत लिखा जा चुका था, गार्सी द तासी ने अपने 'इस्त्वार द ला लितरेत्योर ऐंदुई ए इंदुस्तानी । सं० १८६६ ) में कुछ संतों व उनकी रचनाओं की चर्चा की थी और डा० ग्रियर्सन ने भी अपने "माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ग्राफ हिन्दुस्तान" ('Modern Verna-