पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३३२

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6 २५० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय प्रवृत हो गई ) और अष्ट भँवर को पुरुष के रूप देख लिया। मैं उस अगम का वर्णन किस प्रकार कर सकता हूँ जिसके विषय में कुछ भी उल्लेख नहीं किया जा सकता । उसे न तो कोई रूप रेख है न शरीर ही है वह अगम्य है, अगाध है, अनामी है और वह माया से भी परे है " तब वह उन भिन्न-भिन्न दृश्यों का वर्णन करने लगता है जिन्हें उसने त्रिकुटी के मध्य देखा था-"धरती व आकाश का विस्तार द्वीप एवं नवो खंडों की चर-अचर सृष्टि " की वह चर्चा करता है और यह भी बतलाता है कि जिस समय सुरति ‘त्रिकुटी ( वा गुप्त काशी) के प्रदेश की सैर कर रही थी" तो कितने प्रकार के ब्रह्मांड उसकी आँखों के सामने गुजर रहे थे और इस वर्णन का अंत करता हुश्रा कहता है "उस पार तक कौन जा साकता है जहाँ सुरति और पुरुष का मिलन होता है और वह उसमें लीन हो जाती है" और जहाँ वस्तुतः, जैसा कि तुलसी साहब ने विश्वास दिलाया है यह फूलदास उनके अन्य बारह शिष्यों की ही भाँति पहुँच गया था। फूलदास की उक्त विज्ञप्ति में हम उस अभ्यास का पूर्णरूप देखते हैं। यद्यपि इसमें पवन एवं दृष्टि दोनों की पद्धतियाँ कुछ धुंधले रूप में ही लक्षित होती हैं। यहाँ पर एक अन्य विज्ञप्ति का भी उद्धृत कर देना उपयोगी होगा जिसमें चक्रों एवं नाड़ियों का उल्लेख स्पष्ट शब्दों में किया गया है। गुनुवाँ की यह विज्ञप्ति इस प्रकार है, "आपके संकेतानुसार मैंने सुरति को त्रिकुटी में लगा दिया जिससे चक्रों का भेदन करती हुई वह चन्द्र (ईदा) व सूर्य ( पिंगला) को भी पार कर गई और सुषुम्ना तक पहुँच ® घट रामायण, पृ० ३१२ । x वही पृ० ३२२ ।