चतुर्थ अध्याय २५३ है. गोरखनाथ की हिंदी रचनाओं को हस्तलिखित प्रतियों से हमें जो कुछ पता चला, है उससे भी यह धारणा पुष्ट होती है कि वे भी योग साधना मात्र को हो सब कुछ नहीं मानते थे उन्होंने इस बात का स्पष्ट संकेत किया है कि भीतरी भाव के बिना मनन व श्रासन आध्यात्मिक मार्ग में बाधक सिद्ध होते हैं और साधक प्रांरभिक दशा के आगे बढ़ नहीं पाता ।x परंतु उच्चतर साधनाओं के लिए और यों भी योग की साधनाओं, योग के महत्व को उपेक्षा नहीं की जा सकती । उपनिषदों ने भी इन साधनाओं की व्यवस्था दी है। हमने 'जाबालोपनिषद्' का उल्लेख पहले किया है जिसमें याज्ञवल्क्य को हम अत्रि के प्रति, वास्तविक श्रात्मा को रहस्यमयी काशी में पाने का, उपदेश देते हुए देखते हैं । फिर भी हठयोग की विस्तृत क्रिया की उसमें उपेक्षा की गई है क्योंकि चे प्रांतरिक प्रवृत्ति की जगह वाह्य बातों पर ही अधिक बल देती हैं । यदि भीतरी अनुभव की कमी हो तो बाहरी बातें किसी काम की नहीं हैं । पलटू ने कहा है कि-'यदि देखने का ढंग नहीं तो, काजल आँखों में लगाने से क्या लाभ होगा।"+ हठयोग, जैसा कि हम आजकल भी देखते हैं केवल बाहरी उपायों को ही अधिक विस्तार देता है। और इस प्रकार प्राध्यात्मिक जीवन की मूलाधार अंतर्मुखो वृत्ति उपेक्षित हो जाती थी। तदनुसार उनके लिए वह अवर्ण विहंगम मार्ग की जगह पिपीलिका- मार्ग बनकर ही रह जाती थी। प्रांतरिक अनुभूति वा प्रार्थना क योगश्चित्त वृत्ति निरोधः-'योगदर्शन' १-२ । x सण पवन उपद्रह करै । निसि दिन प्रारंभ पचि-पचि मरै। (पौड़ी हस्तलेख) + काजल दीये से क्या भया ताकन को ढब नाहि । सं० बा० सं० भाग २, पृ. २३२ ।
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