हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय एक ही साथ हुश्रा करता है। कबीर के उन पदों में भी जो उनकी प्रामाणिक कृति समझे जाते हैं इस विषय का कोई स्पष्ट विवेचन उपलब्ध नहीं है। समय पाकर शास्त्रीय पद्धति के प्रभाव क्रमशः काम करने लगे और अनुभव के विविध रूपों के भीतर सामंजस्य तथा इन भिन्न-भिन्न रूपों की प्रानुक्रमिक स्थिति विषयक धारणा भी निश्चित होने लगी। सुन्दरदास जो वर्णों व प्राकृतियों की उतनी चर्चा नहीं करते उन दस प्रकार के शब्दों का वर्णन करते हैं जिनमें विभाजित होकर अनाहतनाद योगियों को क्रमशः अनुभूत होता है ! ये दस प्रकार के शब्द जो अष्ट कुंभक ( अर्थात् प्राणायाम की साधना में किये गये पाठ प्रकार के प्राणावरोध ) पर विजय प्राप्त कर लेने पर प्रकट होते हैं। भ्रमर का गुंजार, शंख की ध्वनि, मृदंग का शब्द, झाँझ का ताल, घंटे को ध्वनि, भेरी एवं दुंदभी का निर्घोष तथा समुद्र और मेवों के गर्जन के रूप में हुआ करते हैं । इधर के निर्गुणी, जिन पर योग एवं तंत्र के अनेक मतों का पूरा प्रभाव रहा है, इन अनुभवों की विस्तृत व्यवस्था प्रस्तुत करते हैं। उनमें बतलाई गई स्थितियों की संख्या प्रत्येक प्रचारक के अनुसार बदलती हुई दीखती है और सबमें एक निश्चित शब्द, निश्चित श्राकार, निश्चित वर्ण तथा एक निश्चित सूक्ष्म शब्द भी प्रथक-प्रथक् लक्षित होता है जिसके कंपनों के कारण वे सभी उत्पन्न हुश्रा करते हैं। इन सबका संबंध भिन्न-भिन्न चक्रों से होता है और सबका एक न एक देवता वा अपना 'धनी' होता है जिसकी कभी-कभी एक शक्ति वा देवी बतलाई जाती है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए यहाँ पर कुछ निर्गणियों के अनु- ॐ 'ज्ञान समुद्र' ( सुन्दरदास ) पृ० १६७ ।
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