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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३५२

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हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए किये गये निम्नलिखित प्रयत्नों से सभी प्रकार की विरोधात्मक बातें अपने विरोधपन का त्याग करती हुई प्रतीत होती हैं और वे पागलपन को असंगतियाँ न होकर उन सूचमताओं की परिचारिकाएँ हैं जो बुद्धिवाद के परे की बातें हैं । "वह बिना मुंह के खाना, बिना चरणों के चलना और बिना जिह्वा के भी मालिक का गुणगान करना है। वह अपने स्थान का परित्याग किये बिना ही सभी दिशाओं की प्रदक्षिणा कर जाता है ।”* वस्तुतः वह बिना समझ के भी विचार करता है और बिना जीभ के पीता है, बिना आँखों के भी देखता है और बिना कानों के सुनता है तथा बिना किसी आधार के बैठता है और बिना हाथों के वेणुवादन करता है ।। (दाद). "धरती बरसती है और आसमान भीगता है और बिना तेल-बत्ती के भी दीपक जलता है । जहाँ पर ज्योति (नूर ) रहती है और उसके वर्गहीन हुए भी उसमें चमकीला रंग लक्षित होता है। बिना फूल के लगे ही उसमें मधुर स्वाद मिल जाता है । मैं किससे ये बातें कहूँ , मुझे कौन समझ पायेगा ?" इन विरोधात्मक वर्णनों पर भी दोषरहित अानंद की छाप लगी हुई है। यह उल्लास जो निर्गण पंथ के अनुसार, एक अति-चेतन की स्थिति प्रदर्शित करता है, 'निरति' वा मूल कहलाता है और वह संस्कृत शब्द 'नृत्य' का एक बिगड़ा हुआ रूप है । साधारण अनुभव की दशा में हम देखते हैं कि मनुष्य जब कभी हर्ष की चरमावस्था में आता है तो वह होते

  • बिन मुख खाय चरन बिनु चाल, बिन जिभ्या गुन गावै ।

आछै रहै ठौर नहिं छाँई, दह दिसि फिरि आवै ॥ १५६ ॥ वही, पृ० १४०। गैरोला, साम्स आफ दादू, पृ० २६ ।

  • संतबानी संग्रह, भा॰ २, पृ० १४६ ।