पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३७६

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. २६४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय अस्तित्व में भी पाया।"+ दादू भी कहते हैं--"जिस प्रकार वह आज्ञा देगा, उसी प्रकार मैं नमस्कार करूँगा, मेरा कुछ भी चारा नहीं, मैं उसका एक बेचारा नौकर मात्र हूँ और उसकी दी हुई लाज्ञा का पालन किया करता हूँ।" पलटू ने सच कहा है--"मुझे पता नहीं, वह कौन व्यक्ति है जो आता है और काम कर जाता है। वह इतना शक्तिशाली है कि वह सब के कामों में छेड़ छाड़ करता है। ईश्वर मेरे रूप में सभी कुछ करता है। हाँ सचमुच, मैं व्यर्थ ही बदनाम हो रहा हूँ।" अपनी शून्यता का अनुभव कर लेने पर ही किसी के लिए असीम जीवन का द्वार खुला करता है। जब कोई अपनी इच्छा को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है तभी उसकी अपनी इच्छा ईश्वरेच्छा बन पाती है और जब कोई अपने अस्तित्व को खोकर उसके स्थान पर ईश्वर को ला देता है तभी उसका अस्तित्व ईश्वर का अस्तित्व हो जाता है, इसी प्रकार उसके प्रभु के जीव उसके लिए काम करना सीखते हैं और अपने को प्रधानता भी नहीं देते और न उसके निमित्त अपने लिए कुछ श्रेय की श्राशा ही करते हैं। प्रभु के मार्ग में अपने श्रापको मिटा देने का तात्पर्य व्यवहार में यही होता है कि मनुष्य किसी त्याग के अवसर पर अपने को दूसरों के लिए उपयोगी सिद्ध कर दे। जो वास्तविक ज्ञानी होता है वह अपने लिए तो मरता है परंतु दूसरों के लिए जीवित रहा ४. + ना कुछ किया न करि सका, ना करने जोग शरीर । जो कुछ किया साई किया, ताथें भया कबीर ॥ वही पृ० ६१ । + ज्यों राखे त्यों रहेंगे, मेरा क्या सारा । हुक्मी सेवक राम का, बंदा बेचारा ॥ 'बानी' पृ० १५६ ।

  • संतबानी संग्रह, भाग २ पृ० २३५ ।