को प्रकाश में लाकर उन्हें एक दूसरे के प्रति सहृदयता प्रदर्शित करन का मार्ग सुझाया । उनके प्रयत्नों द्वारा पारमार्थिक साधना एवं सामा. जिक व्यवहार के क्षेत्रों में भी पूर्ण ऐक्य और समानता की लहर उमड़ चली और संतों के विशिष्ट वर्ग की एक पृथक् परंपरा ही चल निकली जिसे 'निर्गुण संप्रदाय' कहा करते हैं। २-डा० बड़थ्वाल ने निबंध के दूसरे अध्याय में इन निर्गुणी संतों के दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन किया है। उन्होंने सर्वप्रथम इनके एकेश्वरवाद की व्याख्या की है और बतलाया है कि वह किस प्रकार हिंदूधर्म एवं इस्लाम दोनों में समन्वय स्थापित करनेवाले उस एक व्यापक तत्व का प्रतिपादन करता है जो इस विश्व का कर्ता, नियंता तथा शासक भी है। इसी प्रकार उस तत्व की पूर्णता को भी उन्होंने स्पष्ट किया है और बतलाया है कि किस प्रकार वह संतों के अनुसार विश्व के भीतर सर्वव्यापक होता हुआ भी सर्वातीत है जिस कारण उसे निरपेक्ष कहना ही अधिक समीचीन होगा । संतों ने उस तत्व को निर्गुण एवं सगुण इन दोनों से परे की वस्तु माना है और उसे 'चौथा पद' 'अलख' 'अनामी' अथवा 'सत्त' जैसे शब्दों-द्वारा अभिहित किया है। संतों के आत्मा-परमात्मा एवं जड़पदार्थ-सम्बन्धी विचारों का निरूपण करते समय इसी प्रकार डॉ० बड़थ्वाल ने उनका तीन प्रकार की दार्शनिक विचारधाराओं के अनुसार वर्गीकरण किया है और कबीर, दादू, भीखा, मलूक आदि को अद्वती, नानक को भेदा- भेदी तथा शिवदयाल, प्राणनाथ आदि को विशिष्टाद्वैती ठहराया है। प्रथम के अनुसार परमात्मा व जीवात्मा पूर्णतः एक हैं दूसरे के अनुसार दोनों में एक प्रकार से बडे व छोटे का अंतर है, और तीसरे के अनुसार दोनों में अंश व अंशी का सम्बन्ध है । डा० बड़थ्वाल ने इसके साथ ही यह भी दिखलाया है कि संतों की विचारधारा किस प्रकार प्राचीन औपनिषदिक सिद्धान्तों से मेल खाती है। उनके विचार में ये. संत
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