पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४२०

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३३८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय "जब उस रमणी-की आत्मा अपने निर्दिष्ट नृत्य प्रदेश को उट्ट चलती है मेरे वाणी नहीं, किन्तु युवाकाल के स्वप्नों के बीच बनी असंस्कृत भाषा या एक संकेत है जिसके द्वारा मैं प्रकट कर सकता हूँ कि उसे प्रत्यक्ष होने दो।" यह सांकेतिक भाषा (प्रथवा पाश्चात्य विद्वानों के शब्दों में वा प्रतीकमयी भाषा जिससे भी ध्वनि का समानार्थक भाव लक्षित होता है ) ही सत्य की अभिव्यक्ति को काव्य का रूप प्रदान किया करती है। मानव जाति के अस्तित्व के लिए प्रतीकवाद की श्रावश्यकता पड़ती है। मानवजीवन का सारा यंत्र ही अपनी गति के लिए उस पर श्राश्रित रहता है। धर्म का कर्मकांड सम्बन्धी अंश भी विशुद्ध प्रतीकाश्रित विधियों के सिवाय और कुछ भी नहीं। भाषा भी वस्तुत: एक प्रती- कात्मक उपायमात्र है। "जीवन में प्रतीकों का काम निश्चित, संयत व पुनरभिव्यंजनीय बनकर उसे अपनी भाव-भरी शक्ति से भरपूर कर देना होता है। प्रतीकों के प्रयोग-द्वारा वर्ण्य विषय का अभिप्राय उनको कुछ न कुछ वा सभी विशेषताओं से श्रोत-प्रोत हो जाता है और इस प्रकार उसे शान्त भाव एवं क्रिया का अंग बनकर इष्ट परिणाम. के स्तर तक पहुँचने में सहायता मिलती है।+" परन्तु जैसा हमने देख लिया है प्रतीकवाद की आवश्यकता सबसे अधिक प्राध्यात्मिक अभि- व्यक्ति के क्षेत्र में ही प्रतीत होती है जहाँ उसे ऐसे अत्यंत सूचम सत्य को भी स्पष्ट व भावपूर्ण बनाकर प्रकट करना पड़ता है, जो सर्वसाधारण के लिए किसी भी अन्य प्रकार से, बोधगम्य नहीं हो पाता । जीवन के अंतस्तल तक प्रवेश पाये हुए, तथा सूचम दृष्टिवाले श्रात्मद्रष्टाओं को प्रतिभा द्वारा अनुभूत सत्य मानव जाति के उपयोग में तभी आते हैं जब उन्हें गहरे रंगो में रंजित एवं पूर्ण सौंदर्य युक्त प्रतीकों के बने

  • -यीट्स 'अपान् ए डाइंग लेडी' सेक्सन '६ !

+-ए० एन० ह्वाइटहेड 'सिम्बालिज्म, इट्स मीनिंग ऐंड इफ़ेक्ट' ।