पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/४३

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आवश्यक प्रश्नों के उत्तर देने की चेष्टा की है जो संतों वा उनके मत के सम्बन्ध में चर्चा करते समय बहुधा आपसे पाप उठ जाया करते सबसे पहला प्रश्न इस विषय का है कि क्या ये संत लोग केवल सारग्राही मात्र ही थे और क्या इनमें कोई अपनी विशेषता नहीं थी ? इस प्रश्न का उत्तर लेखक ने यह कह कर दिया है कि इन संतों ने अपने समय में वर्तमान सामग्रियों का उपयोग अपने निजी सिद्धान्तों के समर्थनमात्र के लिए ही किया था और इसके कारण इनकी महत्ता में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। फिर एक दूसरे प्रश्न अर्थात् क्या इन संतों का वर्ग वास्तव में सांप्रदायिक है ? का उत्तर इस बात को स्पष्ट करते हुए दिया है कि सांप्रदायिक बातें केवल इनके वाह्य कृत्यों में ही पायी जाती हैं और और वे अधिकतर उन अनेक प्रचलित संप्रदायों के कारण घुस आई हैं जिनके वातावरण में संतमत के अनुयायियों को अपना प्रचार करना पड़ता रहा । संत-संप्रदायों के मूल प्रवर्तकों का प्रधान उद्देश्य कभी वाह्य साधनाओं को अधिक महत्व देने का नहीं था और जो-जो बातें उनके मूल विचारों के विरुद्ध जाती हैं वे केवल गौणमात्र हैं। उनका न तो कोई वास्तविक महत्व है और न उनके द्वारा हम संतों के मत का उचित मूल्यांकन ही कर सकते हैं। ५-इसके पाँचवें अध्याय मे डा० बड़थ्वाल ने संतों की रचनाओं के स्वरूप उनकी कथन शैली एवं भाषादि के विषय में लिखा है। उनका कहना है कि संतों ने अपने भावों को व्यक्त करते समय इस बात की विशेष परवा नहीं की है कि वे किस प्रकार प्रकट किये जा रहे हैं। इन्होंने न तो हिंदी के प्रचलित व्याकरण के नियमों का पालन करने की चेष्टा की और न उसके छंदों अथवा अलंकारादि की उप- युक्तता की ही ओर विशेष ध्यान दिया। अपनी बातों को स्पष्ट करते समय वा उपदेश देते समय जिन पद्यों का इन्होंने सबसे अधिक प्रयोग