३४८ । हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय अथवा अपने हृदय के स्फुरण से अभिभूत रहते थे जिससे सभी प्रकार की कला को प्रेरणा मिला करती है। कबीर का कहना है कि, "मेरा हृदय सैकड़ों कलाओं के श्रानन्द में मग्न हो थिरकता रहता है।" उन कवियों की रचनाओं में जो कुछ भी अलंकार पाया जाता है वह बलपूर्वक लाया गया नहीं रहता, वह स्वभावतः पा जाता रहता है। यदि ड्राइडन के उन शब्दों में कहा जाय जिनका प्रयोग उसने शेक्सपियर के सम्बन्ध में किया था तो कहेंगे कि, 'वे अपने प्रतीकों को बलपूर्वक नहीं लाते थे सौभाग्यवश जाते थे ।' सच्चे रहस्यद्रष्टा के लिए तो प्रत्येक वस्तु अपने लिए स्थित न होकर किसी परे की वस्तु के प्रतीक रूप में ही विद्यमान हैं । इन रहस्यद्रष्टा सन्तों के सभी रूपक व उपमाएँ दैनिक जीवन से सम्बन्ध रखती हैं । अपने प्रतीकात्मक मूर्त भावों के जिए उन्हें कहीं दूर नहीं जाना पड़ता । मथना, हल चलाना, मधु चुआना, बुन्ना व्यापार करना यात्रा करना, ऋनुओं के चक्रादि सभी दनिक जीवन के व्यापार उनके काम आ जाते हैं । निगुणियों की काव्यरचना-सम्बन्धी सफलता उनके रूपकात्मक प्रेमसंगीत, विनय तथा अानन्दोद्रक में देखी जाती है, क्योंकि उन्हीं में उनको प्रांतरिक अनुभूति का पता चलता है तथा सौंदर्य, प्रेम एवं सत्य की त्रयी की अभिव्यक्ति भी उन्हीं में होती है। उनमें स्वरैक्य है, रंग है व गति भी है । वे प्रधानतः गीत होते हैं, उनमें गहरी भावुकता होती है और उनकी गति में भी एक प्रकार की दृढ़तो लक्षित होती है। सौंदर्य की ओर अपने ध्यान के सदा बने रहने पर श्रात्मा भी सुन्दर हो जाती है और उसकी अभिव्यक्ति उन मधुर स्वरों द्वारा होने लगती है जिसे संगीत कहते हैं । भक्त की भावुकता तथा प्रेम के क्षेत्र में गतिशील होना गतिमयी अभिव्यक्ति को आकर्षक बना देता है। सत्य की अनुभूति से एक प्रकार की गति स्वभावतः उत्पन्न होती है जो बहिर्मुखी न होकर अंतर्मुखी रहा करती है जो सभी गतियों के मूलस्रोत अन्तिम शांति में विलीन हो जाती है। फिर इसी से इस .
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