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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/५६

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( २६ ) जाता है, किन्तु उसमें अथवा उनके शिष्यों की भी किसी रचना में सत्त- नामी संप्रदाय का कोई प्रभाव अभी तक सिद्ध नहीं हुआ है । 'सत्तनामी संप्रदाय' की नारनौल शाखा के मूल प्रवर्तक के सम्बन्ध में अभी तक कोई अन्तिम निर्णय नहीं किया जा सका है । उस शाखा के अनुयायियों की चर्चा औरंगजेब बादशाह के शासन-काल का इतिहास लिखते समय, की जाती है । कहा ज.ता है कि इन सत्तनामियों ने उक्त बादशाह के विरुद्ध सं० १७२६ में विद्रोह खड़ा किया था जो बलपूर्वक दबाया गया था। ये सत्तनामी उस समय में भी अच्छी संख्या में बतलाये जाते हैं, किंतु न तो इनके किसी प्रमुख नेता का परिचय मिलता है और न इनके संघटन का ही पता चलता है। विद्रोह के विवरणों- द्वारा केवल यही विदित होता है कि ये लोग, संभवतः, किसाम थे और अपना विद्रोह इन्होंने बादशाह के स्थानीय कर्मचारियों के किसी विशेष दुर्व्यवहार वा अत्याचार के कारण किया था । इनके मत वा किसी धार्मिक संस्था का परिचय; विद्रोह के उक्त विवरणों में, नहीं पाया जाता। विद्रोह-सम्बन्धी युद्धों में इनका केवल 'सत्तनाम' का उच्चारण- मात्र करना कहा जाता है। कुछ विद्वान् इन सत्तनामियों तथा संत-परं- परा के एक अन्य पंथ, साध संप्रदाय में कोई भेद मानते हुए नहीं जान पड़ते और दोनों का मूल प्रवर्तक वीरभान को समझते हुए दीख पड़ते हैं । परन्तु इस वीरभान का भी कोई प्रामाणिक जीवन-वृत्त नहीं पाया जाता और उनका सम्बन्ध कभी-कभी ऊदादास और कभी-कभी जोगीदास के साथ जोड़ा जाता है जो क्रमशः, लगभग सं० १६०० और लगभग सं० १७१५ में वर्तमान थे और जिनमें से वे प्रथम के शिष्य और द्वितीय के भाई म.ने जाते हैं। अब तक की उपलब्ध सामग्रियों के आधार पर यह भी अनुमान किया जा सकता है कि सत्तनामियों की इस नारनौल. वाली शाखा के एक प्रमुख प्रवर्तक जोगीदास भी थे जिन्होंने दाराशिकोह के साथ होनेवाले औरंगजेब के एक युद्ध में, संभवतः उसके विरुद्ध सं०