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७०: हिन्दी-निरुक्त
 

विशेषता आ गयो। चार प्राणियों की उत्पत्ति के लिए 'उपजना' न कहा जायगा । इस जगह हिन्दी ने 'जन्म' के विकसित रूप 'जनम' को नाम-धातु बना कर काम लिया है-'ते जनमे कलिकाल कराला; करतब वायस, बेस मराला। कुछ लोग तत्सम 'जन्म' शब्द से 'जन्मे' और 'जन्मी' आदि गलत लिख देते हैं। इसी अर्थ में उत्पन्न होना' 'पैदा होना' आदि भी चलते हैं। परन्तु ऐसे प्रयोग चर-अचर सभी तरह की उत्पत्ति के लिए होते हैं-'मनुष्य पैदा होता है-'नाज पैदा होता है और इस वर्ष जितनी भी फलों को उत्पत्ति होगी, सव सरकार खरीद लेगी।' परन्तु 'अन्न को उत्पत्ति' की जगह 'अन्न' की उपज ही अधिक चुस्त है। ऐसा क्यों है ? क्यों 'अन्न को उपज' अच्छा लगता है और 'मनुष्यों की उपज' क्यों गलत है। इसमें कारण है । शब्द का विकास दो क्षेत्रों में होता है और वे क्षेत्र हैं: १-जनता तथा २- साहित्य । २६-जनता तथा साहित्य जनता में जिन शब्दों का विकास होता है, वे सर्व-ग्राह्य हो जाते हैं। कुछ शब्दों का विकास साहित्य-मात्र में होता है। इन दानों विकासों में वही अन्तर है, जो डाल में पके तथा पाल में पकाये आमों में । परन्तु, यदि पकाने योग्य अवस्था आमों की न हो, या पकाने की विधि में गड़बड़ी हो जाय और आम पकने की जगह सड़ जाय या सूख जाय; नीरस या विरस हो जाय, तो इसे 'विकास' न कहकर 'विकार' कहेंगे। कर्ण' का विकास जनता में 'कान' के रूप में हुआ और राजा कर्ण' का 'करन'। यह स्वाभाविक विकास है। साहित्य में 'श्रवण' का विकास 'सौन' हुआ.---'सौननि कुंडल' । 'कान' तो साहित्य ने भी यथा-स्थान ग्रहण कर लिया; पर जनता ने 'सौन' नहीं अपनाया। फिर भी, साहित्य में, अवधी तथा ब्रजभाषा-साहित्य में, 'स्रोन' चलता है। यह ‘स्रोन पाल में पकाया हुआ आम है। सुन्दर है, ठीक है। परन्तु यदि कोई 'साहित्यकार' संस्कृत के 'श्रुति' शब्द को 'स्त्र ति' या 'सुरुति' कर के लिखे, तो यह 'विकार' या गली-सड़ी चीज होगी। यह क्यों ? इस लिए कि ' ति का प्रयोग परिस्राव' के अर्थ में भी है-तत्सम सुरुति' भी भ्रामक है। 'शर्मा-वर्मा' को भी 'सरमा'-'वरमा