ग्रीक, लैटिन, केल्टिक और ट्यू टानिक भाषा बोलनेवाली जातियों की उत्पत्ति हुई। जो पूर्व को गये उनसे भिन्न-भिन्न भाषायें बोलनेवाली जातियाँ उत्पन्न हुईं। उनमें से एक का नाम आर्य्य हुआ।
आर्य्य लोगों ने अपना आदिम स्थान कब छोड़ा, पता नहीं चलता। लेकिन छोड़ा ज़रूर, यह निःसन्देह है। बहुत करके उन्होंने कास्पियन सागर के उत्तर से प्रयाण किया और पूर्व की ओर बढ़ते गये। जब वे आक्सस और जकज़ारटिस नदियों के किनारे आये, तब वहाँ ठहर गये। वह देश उनको बहुत पसन्द आया। सम्भव है, वे खीवा के उस प्रान्त में ठहरे हों, जो औरों की अपेक्षा अधिक सरसब्ज़ है। एशिया में खीवा को ही आर्य्यों का सबसे पुराना निवास स्थान मानना चाहिए। वहाँ कुछ समय तक रहकर आर्य्य लोम पूर्वोक्त नदियों के किनारे-किनारे ख़ोक़न्द और बदख्शाँ तक आये। वहाँ इनके दो भाग हो गये। एक पश्चिम की तरफ़ मर्व और पूर्वी फ़ारस को गया, दूसरा हिन्दूकुश को लाँघकर काबुल की तराई में होता हुआ हिन्दुस्तान पहुँचा। जब तक इनके दो भाग नहीं हुए थे, ये लोग एक ही भाषा बोलते थे। पर दो भाग होने, अर्थात् एक के फ़ारिस और दूसरे के हिन्दुस्तान आने, से भाषा में भेद हो गया। फ़ारिसवालों की भाषा ईरानी हो गई और हिन्दुस्तानवालों की विशुद्ध "आर्य्य" १९०१ की मर्दुमशुमारी के अनुसार ईरानी और आर्य्य भाषा बोलनेवालों की संख्या इस प्रकार थी—