जैसा लिखा जा चुका है प्रारम्भिक, किंवा पहली, प्राकृत
से सम्बन्ध रखनेवाली कई एक भाषायें या बोलियाँ थीं।
उनका धीरे धीरे विकास होता गया। भारत की वर्तमान भाषायें
उसी विकास का फल हैं। परिमार्जित संस्कृत भी इसी पहली
प्राकृत की किसी शाखा से उत्पन्न हुई है। जिस स्थिर और
निश्चित अवस्था में उसे हम देखते हैं वह वैयाकरणों की कृपा
का फल है। व्याकरण बनाने वालों ने नियमों की श्रृंखला से
उसे ऐसा जकड़ दिया कि वह जहाँ की तहाँ रह गई। उसका
विकास बन्द हो गया। संस्कृत को नियमित करने के लिए
कितने ही व्याकरण बने। उनमें से पाणिनि का व्याकरण सब
से अधिक प्रसिद्ध है। इस व्याकरण ने संस्कृत को नियमित
करने की पराकाष्ठा कर दी। उसने उसे बेतरह स्थिर कर
दिया। यह बात ईसा के कोई ३०० वर्ष पहले हुई। धार्म्मिक
ग्रन्थ सब इसी में लिखे जाने लगे। और विषयों के भी विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थों की रचना इसी परिमार्जित संस्कृत में होने लगी।
परन्तु प्राकृत भाषाओं के वैयाकरणों ने संस्कृत के शब्दों और
मुहावरों की क़दर न की। प्राकृत व्याकरणों में उनके नियम न
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