पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/३५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जिनशेखर सूरि-जिनसेन प्राचार्य मेमोक्का ग्रन्थ १५६४ सम्वत्म लिखा गया है। ___ शांशांविरहे जिनियरचितो वंगो हरीणामयं ॥५४॥ निनशेखर रि-जिनवलमके शिष्य और पद्मचन्द्र के गुरु। ग्युत्स्थायरसंघसंततित्पुबाट मान्वये इन्होंने १२०४ सम्वत्में रुद्रपझोमे रुद्रपनी खरतरगच्छ प्राप्तः श्रीजिनसेनमरिकविना लामाय योधेः पुनः । गाखाको स्थापना की थी। दृष्टोऽयं हरिवंशपुण्यचरितः श्रीशर्यतः सर्पको जिनयी-एक प्रधान वौड यामक। भद्रकल्पावदान, व्याप्तासमुखपाल स्थिरतरः स्येपात पृयित्रयां चिर" प्रतावदानमाला प्रादि दोह ग्रन्यों में ये महाराज प्रशोक- ( यां गं) के गुरु उपगुप्त-यणित धर्मतत्त्व पूछ रहे हैं और बोध. नैन हरिवंशले इन उहत सोको से मालूम होता • गयावासो जय श्री उमका यथायोग्य उत्तर दे रहे हैं। । है कि ७०५ गताप्दमें पर्थात् हरिव पुराणको रचनाके जिमसागर-एक खेताम्बर जैनाचार्य, जिनचन्ट्रक गिया समामिकालमें उत्तर-भारतमें द्रायुध, दक्षिामें करण १४८.२ सम्बसमें इन्होंने धर्म शिक्षा प्रदान को घो। राजपुव योवनम, पूर्व में भवन्तिपति वसराज पौर निनसिंह सूरि-१ पूर्णिमागच्छीय मुनिरत सूरिक शिथ ।। पथिम मौर्य देशमें वोर घगह राज्य करते थे । ठमो समय २ पुरतरगच्छीय जिनराज रिके शिय। इनका जन्म वईमानपुरमें नव रामधारा निर्मापित योपाखनाथके सम्वत् १६१५. दीना म. १६२३, सूरिपदस्थापन म. मन्दिरमें पुबाटगणीय योजिनमेनाचार्य ने इस ग्रन्थको १६७१ और मृत्यु म० १६७४ है। कहा जाता है, पक रच कर पूर्ण किया था। वरके परामर्शानुमार जिनचन्द्रने लाहोरम प्रजामों के ___मसिह पुरातत्व सर रामकरण गोपाल भाण्डारकर 'धर्म गिक्षणका भार जिनमिह पर दिया था, हम उप. और डा फोट इन दोनों के मतमे हरिवंशकार जिन- लसमें विशेष धर्मानुष्ठान दुपा था। मेनने हो वृहषयसमें जयधयलटीका पोर पादिपुरापके जिनसुन्दर-सोमसुन्दरके शिपा पोर रखगेयरके गुरु । मधमांग रचा है। पायर्य है कि ने नशास्त्रवित् के, यी, इनोने दीपालिकाकल्प और एकादयाङ्गोसूवा धारक पाठकने भी यही बात प्रकाशित को है। परन्त हमें नामक २ सेताम्बर जैन ग्रन्थ लिखे हैं। दुःा साथ कहना पड़ता है कि उस महानुभायाने जिनमेन पाचार्य-१ हरिवंशपुराणकतो प्रसिद्ध दिगम्बर जिस मिहान्तको निचित ठहराया है, वह बिलकुम्न ठीक जैनाचार्य। नो ने स्वरचित हरिवंशपुरापके पन्त | नहीं है। यह तो नियित है कि हरियगकार जिनमेन अपना परिचय इस प्रकार दिया है- पुवाटगण भाचार्य घे; उन्होंने स्वयं हरिवंशपुराणके "तपोमयी कातिमशेषधि या क्षिपन् वमो कीर्तितकोतिषेपः। अन्त में प्रपनको कोर्तिपणका गिष्य बतलाया है। दूसरे तदप्रशिष्येण शिवाप्रसौषयमागरिध्नेमीश्वरमकिमानिना Ru, आदिपुराण और पाखाभ्य दयके पढ़ने मान म होता है स्वशफिमागा जिनमेनमूरिणा धियालयोका हरिवंशपद्धतिः।। कि इन दो अन्योंके रचयिता जिनमेन सेमसंघीय वीरसेन यदा किंचिद रचितं प्रमादतः परसारमाहतिदोषषितं ॥३॥ | पाचार्य के शिष्य थे। इस तरह दोनों एक हो व्यकिथे. ताप्रमादान पुराणकोरिदासजंतु जंतुस्थितिशक्तिदेदिनः। यह बात बिलकुल पसङ्गत ठहरती है। हरियकार प्रशातवंशो परिवंशार्वतः क्व मे मति: क्यास्पतराफिकाः ।) जिनसेनने अपने प्रत्यमें कहा है- पाकेन्वादशोपु सप्तम दश पंयोत्तरेतरी "बोरसेनगुरोः कीतिरकरकापमासते । । पातीदायुषनाम्नि. कृमपले भीवनभे दक्षिणां । । याऽमिताऽभ्युदये तस्स जिने गुपसलतिः। पूध भीमदंपतिभूमति नृपे मासादिरामेऽपरा । स्वामिनो जिनसेनस कति संतपस्यो . प्रौर्याणामभिम अययुते धीरे वरारोपति । ५३ ॥ (ला ) कस्याणैः परिषदमा विपुलश्रीयमाने पुरे " •Vile Dhandarket's Early History of the Dekhan, Page . श्रीपालियनबराबरसतो पर्याप्तछेपारा। 652-20 and Fleet's.Dynauties of the Kamarita District पचा दौतरिकाप्रमाप्रनितारमानाने | is Bombay Gsretteer, Vol.I.BIL.(1896, Age 407) Tol. II.