पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७५७

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७५४ योनि मनुष्ययोनि श्रेष्ठ और दुर्लभ है। क्योंकि, जीवके | गामी, प्रामयाजी, ध्यावृत्तिपरायण, वर्णाश्रमधर्मरहित, मानवयोनि प्राप्त होनेसे वह मुक्तिके लिये यत्न कर सर्वदा मादकद्रध्यपानरत और देवद्वेषो है, जो पिता, माता, सकता है तथा साधनवलसे मुक्त हो सकता है। स्वसा, अपत्य और धर्मपत्नीको त्याग कर देता है, तथा (गरुड़पु० २ १०) जो धर्मंदृपक इत्यादि पाप करता है, वह कुंयोनिको निवन्धधृत वृहद्विष्णुपुराणसे चौरासी लाख योनिका) प्राप्त होता है। (पद्मपु० उत्तरख० १८ १०) . इस प्रकार उल्लेख है-जलयोनि ६ लाख, स्थावरयोनि २० शास्त्रमें जिसे पापकार्य वताया है, उसके करने. लाख, कृमियोनि ११ लाख, पक्षियोनि १० लाख, पशुयोनि | वालोंकी निन्दिन योनिमें गति होती है। ३० लाख, मनुष्ययोनि ४ लान, इन चौरासी लाख योनियों जो सर्वदा पुण्यानुष्ठान करते हैं, कायमनायाक्यसे में परिभ्रमण कर जीव पीछे ब्राह्मणयोनिको प्राप्त होता' कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते तथा श्रवण, मनन और -है अर्थात् ब्राह्मण हो कर जन्म लेता। निदिध्यासनादि करते हैं उन्हें प्रतियोनिमें भ्रमण नहीं कर्मविपाकके मतसे स्थावरयोनि ३० लाख, जल करना होता। योनि लाख, कृमियोनि १० लाख, पक्षियोनि ११ लाख, ७ स्त्रियोंकी जननेन्द्रिय, भग। पर्याय-घराङ्गा पशुयोनि २० लाख और मानवयोनि ४ लाख है । जीव इन उगस्थ, स्मरमन्दिर, रतिगृह, जन्मवर्म, अधर, अवाच्य- सव योनियों में भ्रमण कर द्विजत्व लाम करता है। देश, प्रकृति, अपथ, स्मरकूपक, अप्रदेश, पुष्पी, संसार- प्राणियोंके साधारणतः चार प्रकारको योनि अर्थात् मार्गक, संसारमार्ग, गुह्य, स्मरागार, स्मरध्वज, रत्यङ्ग, उत्पत्तिस्थान हैं, जैसे-जरायु, अण्ड, स्वंद और उद्भिद। रतिकूहर, कलन, अध, रतिमन्दिर, स्मरगृह, कन्दर्पकूप, इन चार प्रकारके योनिसे ही वे सव भेद हुए हैं, जानने फन्दपंसम्याध; कन्दर्पसन्धि, स्त्रीचिह्न । ( जटाधर) होगा। जीव वार वार नाना योमिमें भ्रमण कर अनेक योनिकी आकृति शहनाभिकी आकृति जैसी तीन प्रकारका क्लेश पाता है। विना मनुष्ययोनिके जीय भावतविशिष्ट होती है, इसोसे इसका नाम बगावत भी श्रवण मननादि नहीं कर सकता, इसीसे मानवयोनि है। इस बावर्शयोनिके तृतीय आवर्तमें गर्भाशय श्रेष्ठ है। अवस्थित है। पुराणादि धर्मशास्त्रमें लिखा है, कि पापकर्मानुष्ठान । सामुद्रिकमें इसके शुभाशुभका विषय इस प्रकार द्वारा ही कुयोनिकी प्राप्ति होती है। विष्णुपुराणके मत- लिखा है,-कच्छपको पीठ सो विस्तृत और हाथोके से पापी लोग नरपभोगके बाद यथाक्रम स्थावर, कमि, कंधे-सी उन्नत यानि ही मङ्गलदायक है। पोनिका जलज, भूचरपक्षी, पशु और नरयोनि पानेके वाद धार्मिक, वाम भाग उन्नत होनेसे कन्या और दक्षिण भाग उन्नत मनुष्य और तब मुमुक्षु हो कर जन्म लेता है। ' होनेसे पुत्र जन्म लेता है। जो योनि दृढ़, चौड़ी, बड़ी (विष्णुपु० २।६ अ.) और ऊंची होती, जिसके ऊपरी भाग पर मूसेके शरीर के कुयोनिप्राप्तिका कारण पद्मपुराणके उत्तरखण्डमें इस जैसे थोड़े रोए होते हैं तथा जिसका मध्यभाग अप्रका- प्रकार लिखा है, जो व्यक्ति होमानुष्ठान, विष्णुपूजा, आत्म. शित होता, जो गठन और वर्णमें कमलदल-सी होती, विद्यालाम तथा सुतीर्थगमन नहीं करता, वह कुयोनि जिसका विचला भाग पतला और सुन्दर होता तथा को प्राप्त होता है। जो आतंको सुवर्ण, वस्त्र, ताम्बूल, जो आकृतिमें पीपलके पत्तेकी तरह त्रिकोण होती रत्न, अन्न, फल, जल आदि.दान नहीं करता, जो ब्रह्मस्व | वही योनि सुप्रशस्त और मङ्गलदायक है। जो योनि और स्त्रीधनको छल वा वलसे हरण करता है, जो धूर्त, हरिणके खुरकी तरह अल्पायत, चूल्हेके भीतरोभागको परवञ्चक, नास्तिक, चौर, वकधार्मिक, मिथ्यावादी, तरह गहरी और रोमोंसे ढकी होती तथा जिसका मध्य. बालक, वृद्ध और आतुरके प्रति निर्दय, सत्यवर्जित, भाग प्रकाशित और अनावृत होता वह योनि निन्दित अग्नि और विपदाता, मिथ्यासाक्ष्यप्रदानकारो; अगम्या- और अमङ्गलप्रद है। योनिरोग शब्द देखो।