पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३००

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अत्रि २६३ कहा, तुम्हारे वासके लिये जो सकल स्थान निर्वा देवाधम और यज्ञविघ्नकारी बताके गाली और उनके रित हुए हैं, वह सब जन्मभूमिके प्रति यत्न रखकर वध करनेकी आज्ञा दी थी। भागवत ४१६।१५। 'अत्रि' नामसे पुकारे जायें। पोछे उन्हें छोड़ महर्षि भारतवर्षवाले पश्चिम-पार्ख स्थ देशसमूहके लोग सिन्धुदेशमें जा पहुंचे। देवनिका-पर्वतमें कुछ समय अत्रिऋषिको 'अद्रिस' या 'इद्रिस्' नामसे पुकारते थे । रहकर धर्मज्ञानसम्पन्न और पवित्रचेता सकल अत्रि चन्द्रवंशके आदिपुरुष हैं। चन्द्रवंशोद्भव प्रजाको सृष्टि करने लगे। उनके वासके लिये देवनहुष राजा एकबार मेरुपर्वतके निम्न स्थानमें उन्होंने देवनगरको स्थापन किया।" अनिके साथ साक्षात् करने गये थे। किन्तु वहां किसी-किसी पुराणके मतसे अत्रि मानवसमाजमें किसीको रहते न देख इन्होंने विश्वकर्माको एक वेदप्रचार करनेके लिये इच्छुक हुए थे, जिससे उनके नगर बनानकी आज्ञा दी। पीछे उस नगरका सन्तानरूपमें त्रिमूर्ति का आविर्भाव हुआ। ज्येष्ठका नाम देवनहुषनगरी रखा गया। लोगोंने ऐसी नाम सोम अर्थात् मानवदेहधारी चन्द्र था। विवेचना की है, कि देवनहुष और देवनहुषनगरी मार्कण्डेयपुराणके मतसे जब अत्रिने अनसूयाके प्रति यह दोनो शब्द यूनानी दिप्रोन्यसिउष कटाक्ष किया, तब सोमका जन्म हुआ। (Dionysius ) और दियोन्यसिवोपोलिससे रामचन्द्र वनवासकालमें महर्षि अत्रिके आश्रममें ( Dionysiopolis) परस्पर सम्बन्ध रखते हैं। इससे गये थे। वहां अत्रिपत्नी अनसूयाने सौताको अङ्ग अत्रिदेव जैसे भारतवर्ष और उसके निकटस्थ देश- रचना कर दी थी। रामायण-अरण्य०.२स० रघु १२॥२७॥ समूहवाले सम्प्रदाय-विशेषके आदिपुरुष होते, वैसे रामचन्द्र अत्रि प्रभृति ऋषियोंसे मिलकर गोदावरी ही यूनानौ राजा और पूजनीय व्यक्तियों के भी हैं। तटपर गये। 'अग्निपुराण ७२।। महाभारतमें लिखा अत्रिगोत्र आज भी हिन्दू समाजमें प्रचलित है। है, कि महर्षि अत्रिने वेणनन्दन पृथुराजके अश्वमेध बस्ती प्रदेशको सबरिया जातिमें और वङ्गदेशके यज्ञमें पहले अर्थप्रार्थनाके लिये जाना चाहा था, किन्तु कायस्थ-समाजमें कितने ही अत्रिगोत्रावलम्बी व्यक्ति इसतरह अर्थप्रार्थना करनी युक्तिसङ्गत न समझ यह देख पड़ते हैं। स्त्रीपुत्रके साथ वनमें तपस्या करनेके लिये जानेको यूरोपीय पण्डित यह भी स्वीकार करते हैं, कि उद्यत हुए। पोछे अनसूयाके अनुरोधसे पृथुराजके अत्रिऋषिके साथ प्राचीन युरोपका अति निकट यज्ञमें यह गये और अर्थप्रार्थना करते हुए राजा पृथुको सम्बन्ध था, विलफोर्ड साहेबने लिखा है,- ऐसे वाक्योंसे प्रशंसा की, कि वह धन्य और ईश्वर "The most celebrated amongst tliese Parnasas was that of the famous Atri, whose history is closely connected थे। इससे गौतम मुनिने क्रुद्ध होकर कहा, कि with that of the British islands and this western मनुष्यको ईश्वर बता प्रशंसा करना अत्यन्त अनुचित regions." (Asiatic Researches, Vol. VI. p. 469.) था। अवशेषमें सनतकुमारने इस विवादको यह भलसुङ्गके (Volsung) गल्पमें 'अत्लि' और कहकर मिटा दिया, कि राजाका इसतरह स्तव निबेलुङ्गवाले (Nibelang) गानपर 'एजेल' नामक करना अन्याय नहीं। इससे सन्तुष्ट हो राजा वैण्यने जिस देवताका नाम मिलता, उससे अत्रिका अनेक अत्रिको अलङ्कारभूषित सहस्र दासियां, दश भार सादृश्य लक्षित होता है। ( Cox's Myth. of the Aryan स्वर्ण और दश करोड़ सुवर्णमुद्रा प्रदान की। अत्रि Nations, Vol. 1. p. 342.) वह सब पुत्रादिको दे स्वयं तपस्या करने वनको चले याज्ञवल्कासंहितामें लिखा है, कि अत्रि एकजन गये। ऋग्वेदके अनेक स्थलोंमें कहा गया है, कि अत्रि धर्मशास्त्रकर्ता थे। अत्रिसंहिताके नामका एक देवने इन्द्रकी आराधना की थी। किन्तु भागवतमें धर्मशास्त्र भी प्रचलित है। : अविस हिता शब्द लिखा है, कि महर्षिने पृथुराजके यन्नमें इन्द्रको बृहत्संहिताको टोकामें भट्टोत्पलने लिखा है, कि देखो। ७४