पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अप्रमायुक-अप्रलम्ब विशेष। ततो नञ्-तत्। सचेत, होशियार, जो प्रमादी तत्। १ प्रकृष्ट यत्नका अभाव, कोशिशका न होना, न हो। लापरवायौ, सुस्ती। (त्रि.) नास्ति प्रयत्नो यस्य, अप्रमायुक (वै० त्रि०) प्रमिनोति प्रक्षिपति ; प्र-डु- नज-बहुव्री० । २ प्रयासशूना, यत्नरहित, ढोला, मित्र प्रक्षेपण उण-युक्, नज-तत्। दीर्घ, बड़ा, जो बेपरवा, जो तदबीर न लड़ाता हो। इख न हो। अप्रयाणि (सं. स्त्री०) न प्र-या-अनि। शापसे अप्रमित (सं० त्रि०) न प्रमितम्, प्र-मा-त । १ अपरि जीवनाभाव, बेहरकती, न चलनेको हालत । मित, गैरमहदूद, जिसकी कोई नाप-जोख न हो। अप्रयापणि (सं० स्त्री०) गमन करानेका अभाव, २ अज्ञात, अनुपलब्ध, अप्रमाणित, सुबूत न दिया आगे बढ़नेको मुमानियत। हुवा, जो साबित न किया गया हो। अप्रयावम् (वै• अव्य०) अनवरत, ध्यानसे, लगा. अप्रमौय (सं० त्रि०) प्र-मा बाहुलकात् श; यक तार, बगैर ठहरे। पात ईत्वं प्रमोयम्, ततो नत्र-तत् । १ अपरिमेय, अप्रयास (सं० पु०) सुख, दुःखका अभाव, आराम, अपरिच्छेद्य, निश्चित किये जानेके अयोग्य, गैरमहदूद, फुरसत। जिसका कोई ठिकाना न लगे। अप्रयुक्त (सं० त्रि०) प्रयुज्यते स्म ; प्र-युज-क्त, ततो अप्रमूर (सं० त्रि.) प्र-मूह वैचित्ये त। अमूढ़, नज्-तत्। अनियुक्त, जी लगा न हो, खाली। अमूच्छिंत, होशियार, जो बेवक फ न हो। "अप्रयुक्त प्रयुक्तो वा स कर्ता नामकारकः।” (रामतर्क वागौश) अप्रमृष्ट (स. त्रि.) प्र-मृष-क्त। प्रमृष्टम् ; न अप्रयुक्तता (स• स्त्री.) अलङ्कार शास्त्रका दोष- प्रमृष्ट म्, नज-तत् । १ असहा, अक्षान्त, बरदाश्त अलङ्कार शास्त्र में शब्दादि जैसे प्रयोग करने- न होनेवाला, जो सही न जाता हो। को प्रसिद्ध हो गये हैं, उसके विरुद्ध उनका अप्रसिद्ध अप्रमृष्य (सं• त्रि०) प्र-मृष-काप, ततो न-तत्। प्रयोग पहुंचानेसे यह दोष लगेगा। जैसे, हिन्दीके अवध्य, अक्षय, जिसे मेट न सकें। कवि 'का' को जगह 'को' लिखते हैं। यदि कोई 'का' अप्रमेय (सं० त्रि०) प्रमातुं ज्ञातुं परिमातुं वा हो लिखे, तो कविको प्रसिद्धिके विरुद्ध यह काम योगाम्, प्र-मा-यत् ; आत एवं प्रमेयम्, ततो नज्-तत्। देख पड़ेगा। १ निश्चय ज्ञानके अविषयीभूत, अपरिच्छेद्य, जो नापा अप्रयुत (संत्रि०) प्र-यु मिश्रणे अमिश्रणे च क्त, जोखा न जा सके, साबित न होनेवाला। प्र-मि नञ्-तत्। १ पृथक् रूपसे युक्त, अलग-अलग मिला क्षेपे यत् प्रमेयम्, नत्र-तत् । २ क्षेपण करनेके अयोगा, हुवा। २ अपृथक् रूपसे युक्त, जो एक होमें मिला जो फेंकने काबिल न हो। (क्लो०) ३ परब्रह्म। हो। (वै०) ३ अपरिवर्तित, न बदला हुवा, जो एक अप्रमेयात्मन् (सं० पु०) १ अगम्य आत्मासम्पन्न व्यक्ति, हौ जैसा चला गया हो। जिस शख सके हौसलेका पता न लगे। २ शिव, | अप्रयुत्वन् (सं० वि०) प्र-यु पृथग्भावे क्वनिप् महादेव। तुगागमः, नज-तत्। अपृथग्भूत, लगा हुवा, जो अप्रमेयानुभाव ( स० त्रि.) अनन्त शक्तिशाली, जिसके होशियार रहता हो। ज़ोरका छोर न मिले। अप्रयोग (सं० पु.) प्र-युज-घज्, ततो न तत्। अप्रयच्छत् (वै• त्रि.) १ स्थितिसम्पब, मुदामी। प्रयोगका अभाव, अनुल्लेख, अलगाव, नामुताबकत, २ ध्यान देनेवाला, होशियार, जिसे खयाल रहे। नामुनासिबत, नादुरुस्तौ। अप्रयत (सं० त्रि०) प्र-यम-क्त प्रयतम्, ततो नञ्-तत्। अप्रयोजक (स' त्रि०) प्रयोग करनेके अयोग्य, जो अपवित्र, नापाक। "भवेदप्रयतो नरः।” (पति) लगाने काबिल न हो, बेसबब, फजूल । अप्रयत्न (सं० त्रि.) प्र-यत-नङ् प्रयत्नः, अभावे नज अप्रलम्ब (सं० लो०) न प्रलम्बम्, नज् तत् । १ अवि- 167