कलि सरन्येष्ठ ! उसे कलि किसी प्रकार की बाधा नहीं कलि पोड़ा पहुंचा न सकेगा। कन्निके दापनि एक पहुंचाता । सर्वदा सकल स्थानों पर चक्रपाणिका नाम प्रधान गुण यह निकलता, कि कौचिकों के साथ मानने लेना चाहिये। इसमें अशौचकी विवेचना श्रावश्यक श्रेय फल मिलता है। कलिका तारक ब्रह्मनाम है- महौं। क्योंकि नामकीर्तन ही पवित्र कारक है । ज्ञान "हरे कृच हरे कृष कृष कृप हर हरे। वा अज्ञानवश हरिनाम कीर्तन करनेसे पुरुषके सकल हरे राम हरे राम राम राम रहर" पाय अग्निसे काष्ठराशिकी भांति जल जाते हैं। बन्नारदीयमें निन्नीत सकन्न कार्य कलिके लिये "गोविन्दनामा यः करिबी भवति मूनले। निषिद्ध कई हैं, समुद्रको यात्रा, कमण्डलुका धारण, कोटमादेव तस्यापि पा यानि सासधा।" (स्कन्दपुराण) पसवर्ण कन्याका विवाह, देवरसे पुत्रज्ञा उत्पादन, गोविन्द नामयुक्त किसी मनुथको पुकारनेसे भी मधुपर्कसे पशुका वध, बाईभ मांसका दान, वानप्रस्था- सहस पाप विनष्ट होते हैं। महानिर्वाणतन्त्रमे श्रम, अक्षता होते मी दत्तकन्याका पुनर्वार दान, दोध लिखते हैं,- काल पर्यन्त ब्रह्मचर्य, नरमेध, अश्वमेध, महाप्रस्थान- "मध्यामध्यविचारा न शुद्धिः शौचकर्मणा। गमन, गोमेध यज्ञ, प्राततायो रहते भी बाणको न महिताये: म तिमिरिष्टसिद्धि पाश्वेत् ॥ ६ ॥ हिंसा, सुराग्रहण, अग्निहोत्रको हवनीम भी लेहली. विना घागममाग कालो नास्ति गतिः प्रिये ॥ ७॥ तिम तिपुराणानि मयैवो पुरा शिये। ढाका ग्रहण, (चाटचट ) वृत्त एवं स्वाध्याय सापेच पागमोविधानेन कली देवान् यनेत सुधीः ॥८॥" (श्य उन्नास) पशौच, सोच, मरणके अन्त में प्रायवित्तका विधान, पवित्रापवित्र विचारहीन आह्मण प्रादि वर्षों को संसर्गका दोष लगते भी चौथं प्रभृति दोषोंसे मुश्चिन्छाम, अधि वेदोक्त कम हारा न होगी। पुराण, संहिता और दत्तक तथा पोरसको छोड़ अन्य पुत्रका ग्रहण, गुरु स्मृतिसेमी मनुष्य अपनी इष्टसिदिन पावेंगे। कलि- एवं स्त्रीका परित्याग, दूसरेके चिये प्रामत्याग, उद्दिष्ट- कालमें 'आगमोक्त विधानसे देवताओंको पूना करना का वर्जन, दास गोपाल श्रादिक पत्रका भोवन, चाहिये। राहस्थ के लिये प्रतिदूर तीर्थको सेवा, गुरुस्ती में शिक्षा "पसमाव: कालो नास्ति दिन्यमावोऽपि दुर्लभः । गुरुवत् वृत्ति, हिजातियों को आपत्ति, प्रखस्तनिकता, वीरमाधनकर्माणि प्रत्यचापि कली युगे ॥ १८॥ ब्रायणका प्रवास, मुखसे अग्निधमन, (भाग मुलगाना) कुलाचा विना देवि कली सिद्धिन नायते ।" (४ जास) वतात्कारादि दोषदुष्ट स्त्रीका प्रहप, सर्वजातिसे कलियुगमें पशभाव नहीं होता। फिर देवभाव यतिका भिवाग्रहण, ब्राह्मणादिके लिये शूद्रादिका भी दुर्लभ है। इस युगमें वीरसाधन प्रत्यक्ष फलदायक पाक, पर्वतके उच्च स्थानसे गिर अथवा पम्निमें पड़. है। देवि! कलियुगमें कुलाचारको छोड़ दूसरे प्रायका त्याग प्रभृति। उपायसे सिद्धिमिल नहीं सकती। युधिहिर, हरियन्द्र, मुनिश्चन्द्र, तेजशिखर, विक्र- महानिर्वाणतन्त्र में यह भी लिखा है, जो पन्द्रियों मादित्य, विक्रमसेन, लाउसेन, बल्लारसेन, देवपार,. को जीत कुचाचारका अनुष्ठान करेगा, जो दयाशीच भूपाल एवं महीपाल-कई कलियुगके प्रधान राजा पोर रहेगा, जो गुरुको सेवामें तत्पर, पितामाताके प्रति युधिष्ठिर, विक्रमादित्य, शालिवाहन, विजय, नागार्जुन भक्तिमान, अपनी पत्नी में अनुरक्षा, सत्यव्रत, सत्यनिष्ठ तथा वति हसनचक्रवर्ती शककारक है। स देखो। एवं सत्यधर्मपरायण ही कुलसाधन' कोही सत्य सम ६ देवगन्धर्वविशेष। कश्यपके पौरस पोर दन. मेगा, जो हिंसा, मात्सय, दम तथा द्वेष न रखेगा और •"युधिष्ठिरो विक्रमाविबाहनी धराधिनायो विजयामिनन्दनः। जो कुलाचारके अनुसार स्नान, दान, तपस्या, तीर्थदर्शन, इमेऽनु नामाच्नमेदिनीपतिविः ऋमात् पट्यमकारका बलो। (ज्योतिमिदामरस) व्रत, तर्पण, गर्भाधान, पित्रा प्रभृति करेगा, उसको
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२१५
दिखावट