पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२२४

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कलेजई-कलो थौ २२५. दिन तीसरे पहर कोयो पांच बजे कन्यापक्षीय जन कलोसना (हिं०कि.) कझोर करना, खेलना-कूदना। वासे (नां वरपक्षीय ठहरते है) में वरात न्योतने कीस (हि.वि.)१ क्वष्णवर्ण विशिष्ट. काचापन प्रति हैं। जब बरात न्यौत नाती, सब कन्यापक्षीय लिये हुये । (पु.)२ कृष्णवर्ण, कालापन ३ कला, मण्डली वरको भोजन करनेके लिये गेलाती है। इसीका नाम कलेज है। कलेजम सिवा शक्कर और कलौंजी (हिं• स्त्रो०) १ क्षणजीरक, काला जीरा । पूरीके दूसरी चीज़ नहीं खिलावे। वरकै साथ सह इसे बदलामें मुगरेला, काश्मीरीमें तुख्म गन्दन, पफ- बोला भी कलेज करने जाता है। ग्रानीमें सियाह दारू मराठी में कालेंजिरे, तामिलमें कलेजई (हि.पु.) १ वर्णकविशेष, एक रंग। कारनगिगेगम, तेलगुमें नम जिलकर, कनाड़ीमें काड़ी छिबुले, हर कसौस और मजीठ या पतनके योगसे जिड़गी, मनयमें कारुन चौरकम, ब्राझीमें समोनने, सिंहलीमें बनता है इमका अपर नाम चुनौटिया रंग है। कलुदुरू अरबौमें कमूनप्रसवद और फारसी (वि.)२ चुनौटिया। में सियाहदाना कहते हैं । ( higella sativa) किन्तु कलेना (हिं०७०) १ वक्षःस्थलान्तर्गत अवयव विशेष, कालोजीरो कन्नौजौसे भिन्न वस्तु है। छातीका एक भीतरी हिस्सा । या देखो। २ वक्षःस्थल, यह दक्षिण युरोपमै स्वभावतः उत्पन्न होती है। सोना, छाती। ३ साइस, हिम्मत । दक्षिण भारत पौर नेपालको तरार्य में इसे नदी कलेटा (हिं. पु. ) पजविशेष, एक बकरा। इसको किनारे मार्ग शोष वा पौष मास, बोते हैं । वालुकमय जनसे कम्बल बनते हैं। भूमि कत्लौज.के लिये पच्छी रहती है। वक्ष डेढ़ कलेवर (म. ली.) कले शके वरं श्रेष्ठम्, देवोत्य या दो हाथ उस होता है। पुष्य झड़ जानेसे कोयो तिहेतुकत्वात् पवित्रम्, पलुक् समा। शरोर, जिस्म, तौन अङ्गलि परिमित कती निकलती हैं। उनमें कृष्णवर्ण कण भर रहते हैं। कपका प्रसाद सबल, कलेस (हि. )श देखो। सोच्य और सुगन्धि होता है। लोग कलौंजी को तर- कलैया (हिं-स्त्री.) १ कला, उलट-पुलट । २ताड़ना, कागेम डाल कर खाते हैं। इससे दो प्रकारका तेल उत्पीड़न, मारपीट। निकलता है-एक कणवर्ण, सुगन्धि एवं वायु परि- कोईयोड़ा (हि.पु.) सर्पविशेष, मनगरकी भांति माणशील और दूसरा स्वच्छ नया एरण्डतैल सदृश । एक बड़ा सांप। यह बङ्गालमें होता है। प्रथमोल तेलसे सुन्दर नीलवर्ण प्रतिविम्व फुटता है। कस्लीव (सं० पु.) कलमशालि, जड़हन। कलौंजी सुगन्धित, वायुनाशक, अग्निदापन और पाचक कालोपनता (सस्त्री.) मूछनाविशेष, एन इजफ। होती है। यह अग्निमान्य. अरुचि, चर और ग्रहणी "मध्यमे था मोवीरौ हारिणावा तमः परम् । प्रभूति रोगों में पौषधको भाति व्यवहार की जाती है। स्थात् कसीपमना गरमध्या मागीच पीरवी कसोजोके सेवनसे दुग्ध भी अधिश उतरता है। सुसन- ज्यका मधमा मात्रा मूछनेत्यभिधारमा: (सौसदय) मान हकीमांक मतानुसार कलौंजो उत्तजक, वय- मध्यम ग्रामको सात मूर्छना होती हैं, सीवोगे, ताकारक, परिपाकथील, शोधन, और मूत्रवर्धक है। हारिणाखा, कलीपनता, शमध्या, मार्गी, पोरवी और कलौंजो कपमय वीज कपड़े में रखने को नहीं लगता इचका । क्लोपनता मध्यम ग्रामको वतीय मूछनाका २ एक तरकारी। यह करेले, परवल, भिण्डी, नाम है। बैंगन वगैरहको बीच चौर और नमक, मिर्च, कलौर (वि. वि.) वैव्यायी, जो व्यायी न हो। खटाई, धनिया-प्रमृति ट्रव्य भर कर बनायो जाती है। याद गायक होसिये पाता है। उसे मरगत भी कहते है। बीस. (हिं.)ोष देशी। बलोथो (हिं. बी.) कुलत्य, मुंगरा चावल। Vol. IV. 57 चोला।