२६४ काकचिचा-काकजंघा सम्बन्ध में सभाशुभ देखनेको उक्त प्रकारसे बलिप्रदान सन्ताप, भोक एवं यात्राको विफलता है। यदि काक कर समझते हैं,- पिण्डको विलकुल नहीं खाता प्रयवा चक्षुनखसे काकके शिशुको ले अनुकूल चेष्टा लगाने और फेंक जाता, तो सर्वकार्यमें अमल पाता या गहरा दचिण पर तथा प्रौवा छठा बोलते बोलते मनोज युद्ध देखाता है। स्थान वा मनोज वृक्ष पर जानसे शम.पौर अभीष्टको काकचिचा (सं• बी.) काकवर्ण चिचा प्रान्तभागः सिदि होती है। इससे विपरीत चेष्टामें उलटा फल फले यस्याः, पृषोदरादित्वात् साधुः । १ गुना, धंधची। मिखंता है। प्रधान शिशको लेकर शान्तदिक् चलनेसे गुना देखो। २ रक्तगुवा, लाल धुंधची। पूर्ण. लाभ होता है। किन्तु पिण्डके साथ प्रदीप्त- | काक चिञ्चि, काकचिचा देखो। दिक्को प्रस्थान करनेसे कार्य प्रथम बनते भी पीछे | काकपिचिक (सं० क्ली• ) काकधिचाच, धुंघचौका वितकुल विगड़ जाते हैं। द्वितीय पिण्ड उठा शान्त पेड़। दिक्को जानेसे शुभ रहता और कार्यका फल विनम्बमें | काकचिची (सं. स्त्री० ) काकचिश्चि-डीप्। गुना, मिलता है। जघन्य पिण्डके साथ प्रदीप्त दिक्को) धुंधची। चलनेसे कार्य भी नधन्य होता है। काकच्छद (सं० पु.) काकस्य छदः पक्षः इव वदी पिखाटम दानको व्यवस्था-शुभदिन में साथ काम बलि यस्थ, मध्यपदलो । १ खुश्चनपक्षी, खड़गेचा । भोजनके लिये काकोंको निमन्त्रण देना चाहिये। २ चाषपची, नीलकण्ठ। ३ कौवेका पर । दूसरे दिन प्रातः काल समस्त उपकरणके साथ किसी | काकदि (० पु०) काकच्छद बाहुलकात् इच् । निर्जन देशस्थ तरुके तलपर पहुच भूमिको मृत्तिका बाद देखी। गोमय प्रभृतिसे परिष्क त और पञ्च गव्य से परिशच कामचर्चि, काकच्छद देखो। करते हैं। फिर सौम्य उपहार कुलदेवताको पूज। काकनंधा (सं० स्त्री.) काकस्य अंधेव जंघा आक्षति वृत्त एवं दधिमिश्रित पाठ पिण्ड पूर्वादि क्रममें पाठो यस्यः, मध्यपदलो । १ खनामख्यासवृक्ष, एक दिक इन्द्र, वलि, भव, नैऋत, विष्णु, ब्रह्मा, कुवेर, पेड़। इसका संस्कृत पर्याय-काकाजी, काकाची, महखर और शाकको देते है। प्रत्येकका नाम ले काकनासिका, क्योबल, भाङ्कजंघा, काका, प्रणव एवं नमः शब्दयुक्त मन्त्र, तथा मध्य, आसन, सुलोमशा, पारावतपदी, दासौ और नदीकान्ता है। बालेपन, पुष्य, धप, नैवेद्य, दीप, भातप और राजनिघण्ट के मतमें यह तित, उष्ण पौर व्रण, कफ, दक्षिणादिसे पूजा करते हैं। पूजाका मन्त्र नीचे वधिरता, अजीर्ण, जीर्णज्वर तथा विषमज्वरनाशक होती है। लानाथके कथनानुसार काकजंधा ज्वर, ."'नमः खगपतय गरुड़ाय द्रोणाय पतिराजाय खाहा। कण्डु, विषमज्वर और अमिको करती है। द्रौपादकसम पिछ हायबमशक्तिवः । पुष्थानक्षत्र में इसका मूल उखाड़ रख सूत्रसे यथादृष्ट' निमिया कथयखाद्य मे स्टम् ।" गले या हाथमें बांधनेसे एक दिनकै अन्तरसे पानवाला पिण्डदानके पोछे वहांसे खिसक किसी निभृत ज्वर (एकातरा) कूट जाता है। कोई कोई इसे मसौ या चकसेनी भी कहते है। स्थानमें खड़े हो .काकचेष्टा देखना चाहिये। प्रथम पिण्ड लेनेसे कार्य सिद्ध होता है। हितोयसे उद्वेग . काकजंघाका नाम तेलगुमें सुरपदि (दिविकि वैचमा) शोक, यात्राको विफलता, हानि वा कलह, तीयसे हैं। अंगरेजी उदिन मात्र त्याहिरटा (Leea hirta) लिखते हैं। यह ४५ हाथ बढ़ता है। काण्ड- रोग, आपद, भय एवं मृत्य चतुर्थ से युद्ध में जय, पञ्चम सन्धिका मध्यभाग काकजंघाकी भांति इवत रहता सहजमें अभीष्टसिधि, षष्ठसे - प्रवास तथा विफलता, सप्तमसे असिद्धि और अष्टम पिण्ड ग्रमण करनेसे है। इसी स्थानसे पत्र निकलते हैं। काकजधाके
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२९३
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