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पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३३

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कवीर-उद-दौन-कबीरपन्थी संवत् १२.५ को मगर नगर में लोक छोड़ दिया।| गुरुके निकट मन्त्र सेना नहीं पड़ता। वह केवल ऐसा होने से प्रायः ३ भतवर्ष इनका परमायु पाता. वितरही प्रायमर धर्मगान करनेको ही उपासमा है। यह क्या सम्भव है। किन्तु भतिमाहामा और समझते और अपनी इच्छा के अनुसार वैशभूषा रखते कई मुसलमानी इतिहासके ग्रन्थ पढ़नेसे हम हैं। फिर कोई नग्नप्राय हो कर मौ पथ पथ समझते-कबीर सिकन्दर लोदीके समसामयिक रहे। घूमते फिरता है। सन्यासियोंके महन्त मस्तक पर १५४४ संवत् सिकन्दरने राज्य पाया था। प्रतएव टोपो लगाते हैं। उछ दोनों दल प्रायः १२ शाखामें सम्भवपर मानते उस समय कबीर विद्यमान रहे। विमत हैं। इन १२ शाखाप्रवर्तकोंके नाम नीचे सिखोंके धर्मगुरु नानकने कवोरका मत अपने लिखते हैं,- अन्यमें राहत किया है। एतद्भिन्न सत्नामियों, साधों, (१) श्रुत गोपालदास-सुखनिधानके प्रणेता रहे। श्रीनारायणियों और शून्यवादियोंके पुस्तक भी इनके शिष्य परम्परासे हारकाके अखाड़े, वाराणसीके इनका मत मिलता है। इससे समझ पड़ा-उक्त कवीर-चौरे, मगरके समाधि और जगन्नाथके अखाड़े सम्पदायप्रवर्तकोंने इनका मत ले साथ साथ अपना धर्म पर कटत्व रखते हैं। प्रचार किया है। अन्यान्य विवरण कोरपन्यो शब्दमें देखी। (२) भगोदास-बीजकके रचयिता थे। इसके कबीर-उद-दौन-सान-उद-दीन इरकीके पुत्र। दिल्ली अनुगामी शिष्य-प्रशिष्य धनौती नामक स्थानमें वाले बादशाह अला-उद-दौनके समय यह जीवित रहे।| रहते हैं। इन्होंने उनके अमिभवपर एक पुस्तक लिखा था। (३) नारायण दास और (8) चूड़ामपि दास- कबीरयन्यो-सम्पदाय विशेष। इन्होंने महात्मा धर्मदास नामक वणिक्के पुत्र तथा टहस्य रहे। कबीरका प्रवर्तित धर्ममत अवलम्बन किया है। इसीसे सब लोग इन्हें 'वंगुरु की भांति सम्बोधन कबीरपन्यो सकस देवतावोंकी अपेचा विष्णु के | करते थे। आजकल चुडामणिका वंध समान भ्रष्ट प्रति पधिक भक्ति देखाते हैं। रामानन्दो प्रमसि पौर नारायणका वंश नष्ट हो गया है। वैष्णव सम्प्रदाय के साथ यह सदभाव रखते और (५) नौवनदास-सतनामी सम्प्रदायके प्रवर्तक थे। प्राचार-व्यवहारमें भी मिलते-जुलते हैं। इससे सतनामी देखो। कितने ही लोग इन्हें वैष्णव कहते हैं। कबीरपन्थी (६) नग्गूदासको गद्दी कटक में है। अपरापर वैष्णवोंकी भांति तिलक लगाते, नासिका. (७) कमलको लोग कबीरका पुत्र बताते है। पर चन्दन वा गोपीचन्दनको रेखा बनाते, कण्डमें किन्तु इस पक्षपर काई विशेष प्रमाण नहीं मिलता। तुलसीमाला लटकाते और हाथमें भी जपको माला यह बम्बई में रहते थे। इनके मतावलम्बी योगाभ्यासी मुखाते हैं। किन्तु यह इस तिलकमुद्राको वृथा भाडम्बरमान समझते हैं। वास्तविक इनकी विवे. (८) टकसाती-वरदावासी थे। चनामें शास्त्रोक्त देवदेवीका पूनन अथवा क्रिया- (e) धानी-सहसरामके निकट मभनी ग्राम, कलापका अनुष्ठान प्रयोजनीय नहीं ठहरता। रहते थे। कबीरपन्थियों में प्रधानतः दो दल होते हैं-एहस्थ (१०) साहबदास-कटकनिवासी और मूलपन्यो और सभ्यासी। सहस्य खस्न जातिगत और वर्णगत नामक सम्प्रदायके प्रवर्तक थे। सूक्षपन्यो देखो। प्राचार व्यवहार अवलम्बन करते हैं। फिर कोई (११) नित्यानन्द और (१२) कमलामन्द-दाशि- निज धर्मको छोड़ हिन्दुवोंके उपास्य देवतावोंको मो यात्ववासी थे। पूजता है। संसारत्यागी सन्यासी एकमन नयनके सिवा इनके दाम कबीरी, मंगरेन-कबीरी, इंस- अगोचर केवल कबीरदेवका ही मनन करते हैं। उन्हें ! “कबीरी प्रमति दूसरी शाखा भी विद्यमान है। Vol. IV. 9