पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष षष्ठ भाग.djvu/२५०

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२४० गलगण्ड में पानी भर करके सात दिन तक रख छोड़ते हैं। फिर | कोई उल्लेख देख नहीं पड़ता । सुश्रुतने ग्रन्थि नामक यही जल पीने और हितकर द्रव्य खानसे भी इस रोग | जिस रोगका लक्षण लगाया, भावप्रकाशमें प्राय: उसोको का प्रतीकार होता है। जो, मंग, परवल आदि और गगडमाला ठहराया है। प्रसिद्ध अभिधानप्रणता हेमचंद्रने कट तथा कक्ष द्रव्य भोजन, वमन और रक्तमोक्षण गण्डमाला और गलगण्डका एक पर्याय रखा है। ऐसे गलगगड रोगभे हितकारक है। पन और पोपलके चूग्नमें स्थलपर कहा जा सकता है, भावप्रकाशोक्त गण्डमाला सन्धव डाल करके प्रतिदिन खानसे यह रोग कटता कोई पृथक् रोग नहीं। वह या तो गलगगडक अथवा है । अमृतादितेल पीनसे भी गलगगड आरोग्य ग्रन्थिरोगके अन्तर्गत आवेगा। ग्रन्थि दे। होता है। भावप्रकाशमें गण्डमालाक लक्षण आदि यों कह हैं- सुश्रुतक मतानुमार वायुजन्य गलगण्ड रोग पर हाथकी जड, मन्या वा कोखमें बेर या आंवला जैसी मूत्रमयोगमें त्रिविध प्रकार अम्बरम और उषा दग्ध वा | गांठ उठनसे गगडमाला कहलाती है। यह काल वलम्बमे तलक माथ मांम वा पन्नाशीलताके रससे पहले नाडो पकतो और दूषित कफ तथा मंद हो उसका कारण है। वेद प्रयोग करना चाहिये। पीके विद्यावित करके | गगडमालाको चिकित्मा गलगण्डको तरह होती है । नियत खेद देत है। इसी प्रकार व्रण साफ होने पर कचनारवृक्ष या वरुण मूलको छालका काढ़ा बना सनका वीज, अलसी, मूली, सहिजना और सुरावीज करकं मोठका चूरन और शहद डालकर पीनमे बहुत आर प्याजका गूदा सब चीजे तिन्लों के साथ उसमें बाध दिनको गगडमाला भी शीघ्र आरोग्य होती है। कचनार- देनी चाहिये। नोलका पड़, गुड़च, महिंजना, पुनावा की छाल ४ या ८ तोले चावल धुले पानीक साथ पीनसे प्राकनादि, चकौड़िया, मनफल, अगस्त्य, खेर, तिल और गण्डमाला मिटती है। उसमें कचनार और गुग्ग लु भी कुड़-मब चोजें शराबकै मिरके पोम करके लेप चढ़ान प्रयोज्य है। मे वायुजन्य गलगण्ड रोग नष्ट होता है। वैद्यजीवनको देखते सेलाको गुठलीका गूदा, कसोस, कफसे हुए गण्डमालामें खेद प्रयोग करके नश्तर लाल चौतकी जड़, गुड, कनादिका क्षौर, मनमामिज- लगवा देना चाहिये। पोछे अजगन्धा, अतिविषा, गुले का तीर, सब टव्य एकत्र पेषण करके प्रल लगानिमे चीन, मैढासींगो, कुष्ठ, गण्ठवन और धची पलाश-क्षार थोडी देर बाद ही गण्डमाला दब जाती है। उष्ण जलके साथ पोस करके प्रयोग करनेसे कफजन्य (यौवन) गलगण्ड रोग दब जाता है। युरोपीय डाक के मतमं गण्डमाला और गलगण्ड मदीजन्य गलगण्ड रोगमें विधानके अनुसार शिरा- दोना स्वतन्त्र रोग हैं। ओंको विद कर देना चाहिये। श्यामाम्लता, कलईका गलेकी गांठका सूज जाना हो गण्डमाला ( Sero- चना, लोहको कोट, दन्ती और रसोत-मब चीजोंको | fula) रोगको प्रकत अवस्था है। यह कौलिक रोगों में मिला करक लेप चदाते हैं। शालवृक्षका सार मूत्रके गिना जाता है । किन्तु शारीरिक दौर्बल्य, रक्ताल्पता साथ आलोडित करके पिया जाता है। अथवा नश्तरसे आदि कारणोंसे बहुत अवस्था में गण्डमालारोग उठ फोडा चौर करके भीतरो मवाद निकाल डालना चाहिये। खड़ा होता है । युरोपीय चिकित्सक भी गलगण्ड और मज्जा, कृत वा वसाको मधुके साथ डाल करके उसमें गण्डमालाको किसी किसी समय एकजातोय जैसा ही घृतमधु प्रयोग करते हैं। रोगीका शरीर चिकना रहनसे रोग समझते हैं। उनके मतमें गण्डमाला रोगको ३ प्रव. ऐमो चिकित्सा करना उचित है। इससे मैदजन्य गल स्थाए हैं। प्रथम अवस्थामें चोषक ग्रन्थि ( Lympha- गण्ड रोग निवारित होता है। (ऋत) tic gland ) तथा त्वक, दूमरीमें भिक झिल्ली भावप्रकाशकारने गण्डमाला नामक किसी प्रकार ( Mucous membrance ) अथवा कोषमय पदार्थ का रोग निर्णय किया है। किन्तु सुश्रुत प्रभृतिमें उसका (Cellular tissue) और तीसरीमें अस्थि तथा शारो.