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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


करते हैं, इसलिये पर-निन्दकों को कम से कम लडको के सामने उनके सम्बधियों की निन्दा से विरत रहना चाहिये।

यहाँ विद्यार्थियों के प्रति शिक्षको की और से होने वाले व्यवहार पर भी विचार कर लेना उचित होगा । बहुधा शिक्षक विद्यार्थियो से अपने घर का काम-काज कराते हैं जिसके विरुद्ध शिष्य-गण संकोच वश कुछ नहीं कह सकते । कमी-कभी वे अपने कुछ विद्यार्थियों की इसलिये दगड देते हैं कि ऐसा करने से उन्हें लड़कों को घर पर पढ़ाने का अवसर मिल जाय । इस प्रकार के कार्य अत्यन्त निन्द- नीय हैं। क्रोध में आकर अथवा बालको की किसी भूल से अचा- नक अप्रसन्न होकर उन्ह अनुचित दण्ड देना अशिष्टता है । बालको की उचित जिज्ञासा का उत्तर न देना अथवा अपने अज्ञान को कपट से छिपाकर कुछ का कुछ बता देना शिक्षक के लिए बड़ी ही निन्दा की बात है। विद्यार्थियों को उनकी मूर्खता के कारण बार- बार लज्जित करना अथवा उनसे व्यङ्ग-पूर्वक बोलना असभ्यता का चिह्न है। लड़को से उनके घर की बातें न पूछी जाये ओर न उनके द्वारा किसी प्रकार का अस्पष्ट संदेशा भेजा जावे । पाठशाला के मुख्य अध्यापक का यह कर्तव्य है कि वह इन सब दोषों को दूर करने का प्रयत्न करे।

( ४ ) दीनों और रोगियों के प्रति

दीनों को सताना केवल शिष्टाचार ही के विरुद्ध नहीं, किन्तु धर्म और नीति के भी विरुद्ध है। ऐसे मनुष्य को पीडा पहुंँचाना, जो किसी प्रकार बढाबा नहीं ले सकता मनुष्यता के विपरीत है। दीन मनुष्य के सामने ऐसा कोई काम करना अथवा बात निकालना जिससे उसे अपनी हीनावस्या पर मार्मिक खेद होने लगे, धनवानो के लिए उचित नहीं है। दीनो को तिरस्कार की दृष्टि से देखना अथवा जान-बूझकर उनका अपमान करना असभ्यता का चिह्न है।