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पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/१३

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प्रथम अध्याय


स्थित हो सकते हैं, पर शिष्टाचार के अभाव में सहसा वैसा भविष्य नहीं हो सकता। सदाचार के अभाव में लोग बहुधा एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं हो जाते, पर शिष्टाचार के अभाव में ऐसा प्रायः होता है। सदाचार मन, वचन और कर्म को एकता के रूप में देखा और पाला जाता है, परन्तु शिष्टाचार बहुधा वचन और क्रिया ही से सम्बन्ध रखता है। यदि शिष्टाचार में मन को शुद्ध प्रेरणा भी मिल जाय तो सोने में सुगंध की कहावत पूरी पूरी घट सकती है और उस समय शिष्टाचार निरा शिष्टाचार नहीं रहता, किन्तु पूरा सदाचार हो जाता है। हमारे इस कथन से किसी को यह न समझ लेना चाहिये कि हम सदाचार को परस्पर जीवन के लिए आवश्यक नहीं समझते अथवा शिष्टाचार को केवल कुछ दिखाऊ नियमों का ही पालन करना मानते हैं। हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि जिस मनुष्य को सदाचार का पालन करना मन से कठिन जान पड़ता है वह सच्चा सदाचारी नहीं हो सकता, परन्तु शिष्टाचार का पालन मन के बिना अथवा सदाचार के अभाव में भी हो सकता है, और जहाँ सदाचार का अभाव है वहाँ उसकी पूर्ति अधिकांश में शिष्टाचार के पालन से हो जाती है। सदाचार के पालन में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं पर उनका बहुत ही थोड़ा अंश शिष्टाचार के पालन में पाया जाता है। संसार में थोड़े मनुष्य सदाचारी हो सकते हैं, पर शिष्टाचारी मनुष्य बहुतायत से बन सकते हैं। झूठे और चोर मनुष्य भी शिष्टाचार का पालन कर सकते हैं और करते हैं। इन सब विचारों के कारण शिष्टाचार और सदाचार के अन्तर में मन की शुद्ध प्रेरणा की विशेषता मानी जाती है।

(३) शिष्टाचार और चापलूसी

दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अत्यन्त और अनावश्यक मिथ्या प्रशंसा अथवा नीच कार्य करना चापलूसी है, पर प्रसंग पड़ने पर