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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


कोटि के पाये जाते हैं । ये लोग बहुधा दूसरी भाषाओ का व्यावसा- यिक ज्ञान प्राप्त करके उनके उच्च कोटि के लेखो का अनुवाद करते हैं और मूल लेख का उल्लेख न कर स्वयं ही उस लेख के लेखक धन बैठते हैं ! इसी प्रकार कई एक लेखक बिना किसी कृतक्षता के दुसरी पुस्तको से पृष्ठ के पृष्ठ नकल करके अन्य ग्रन्थ तैयार कर लेते हैं। समय-समय पर ऐसे लेखकों की पोल खोली जाती है, पर लोगो के आक्षेप बहुधा उन्हें अपने स्वार्थ-मार्ग से नहीं हटा सकते । कई एक पुराने लेखकों की कृतियों से इस समय यह पता लगा है कि उनके जो ग्रन्थ कुछ समय तक युगान्तर उपस्थित करते रहे वे यथार्थ में दूसरी भाषा की पुस्तको के अनुवाद मात्र थे। ऐसी अशिष्ट कृतियों से प्रशसा नहीं हो सकती।

सम्पादक लोग बहुधा दूसरो के लेखों में बे-हिसाब काट-छाँट करने की उद्दण्डता भी कर टालते हैं। यद्यपि कई लेखक अपने लेखो की उमङ्ग में कभी-कभी ये सिर पैर को बातें लिख मारते हैं तो भी सम्पादक को उचित है कि वह किसी भी लेख में अल्पतम परिवर्तन करे । हाँ, जो लेख बिलकुल ही बदलने के योग्य हो, परन्तु जिसमे महत्व पूर्ण विवेचन किया गया हो, उसे लेखक की आज्ञा लेकर पूरा बदल देना अनुचित नहीं है। किसी लेखक से लेख प्राप्त होने पर उसकी सूचना देना चाहिये और यदि लेख छपने योग्य हो तो उसे उपयुक्त अवधि में छाप देना चाहिये । जहाँ तक हो सके अस्वीकृत लेख नम्रता पूर्वक कारण समझाकर लेखक को लौटा दिये जायें । ऐसा न हो कि लेख प्राप्त होने पर उसकी पहुँच न लिखी जायें और लेखक के पूछने पर उसे कुछ उत्तर न दिया जाय।

सम्पादको को अपने पत्रों में दूसरे पत्रों का उल्लेख बहुत कम करना चाहिये । यद्यपि पत्रों की परस्पर मुठभेड़ से अधिकांश पाठको का मनोरञ्जन होता है और जिस पत्र के उत्तर कुछ अधिक