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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


उचित रीति से दूसरो की थोड़ी-बहुत आवश्यक प्रशंसा वा सेवा करना शिष्टाचार है। चापलूसी और शिष्टाचार के इस सूक्ष्म भेद पर ध्यान न देने ही से लोगों में शिष्टाचार का अर्थ चापलूसी प्रचलित हो गया है । चापलूसी बहुधा अनुचित स्वार्थसाधन के लिए आत्म-गौरव को त्यागकर मन की स्वाभाविक प्रवृत्ति अथवा अभ्यास के आधार पर की जाती है, परन्तु शिष्टाचार स्वार्थ-साधन से विशेष सम्बन्ध नहीं रखता और उसमें आत्म-गौरव का दुर्लक्ष्य भी नहीं होता । यद्यपि शिष्टाचार की प्रवृति भी थोड़ी-बहुत स्वा भाविक रहती है, तथापि चापलूसी के समान वह कुटेव का रूप धारण नहीं करती । यदि चापलूसी करने वाले मनुष्य के विचारो ओर कार्यों में कोई हस्तक्षेप न करे तो वह प्रत्यक्ष रूप से,किसी दिन, दिन को रात और रात को दिन कहने के लिए भी तैयार हो जाता है, पर शिष्टाचारी मनुष्य असत्य को भी अपना गौरव रख कर प्रगट करेगा । बिना सोचे विचारे और बिना उचित आवश्यकता के किसी की “हाँ में हाँ" और “नहीं में नहीं" मिलाना चापलूसी वा चाटुकारिता है, परन्तु प्रत्यक्ष रूप से किसी का जी दुखाये बिना,सोच-समझकर अपनी उचित सम्मति देना अथवा आवश्यकता होने पर मौन धारण करना शिष्टाचार वा सभ्यता है।

दूसरो को सदा प्रसन्न रखना बहुत कठिन है, पर संसारी व्यवहार में उचित उपायों से दूमरों को प्रसन्न रखने की आवश्यकता होती है और इसके लिए शिष्टाचार ही उपयुक्त साधन है, चापलूसी नहीं। जब शिष्टाचार अपनी सीमा से बाहर हो जाता है तब वह चाटुकारिता का रूप धारण कर लेता है और उस समय वह निदनीय है । इस प्रकार का मिथ्या शिष्टाचार बहुधा दोनो व्यवहा- रियों के लिए दुखदायी होता है। चापलूसी को मान देने वाले लोग भी उसे सिद्धान्त की दृष्टि से