पृष्ठ:हिन्दुस्थानी शिष्टाचार.djvu/२१

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प्रथम अध्याय

शिष्टाचार का दूसरा साधन वचन है। हमे दूसरों के साथ ऐसे वचन बोलना चाहिए जो प्रिय हों और यथा-सम्भव सत्य भी हो। यदि किसी समय सत्य बोलने का प्रयोजन न है तो हमें मौन धारण कर लेना चाहिए अथवा ऐसे वचन बोलना चाहिए जिससे धोखा का थोडा-बहुत समाधान हो जाय और उसकी कोई हानि न हो। सदाचार की दृष्टि से भी अप्रिय सत्य का निषेध है। पर जान-बूझ-कर धोखा देने के लिए अथवा हानि पहुँचाने के लिए झूठ बोलना दोनों प्रकार से निन्दनीय है।

शिष्टाचार-सम्बन्धी क्रियाओं के अंतर्गत वे सब कार्य हैं जिनका परोक्ष व प्रत्यक्ष सम्बन्ध दूसरो से है। शिष्टाचार में उन सब क्रियाओं को त्याज्य मानते हैं जिनसे दूसरे को असुविधा अथवा असन्तोष होता है। मान लीजिए कि किसी मनुष्य को बहुत हंँसने में आनन्द मिलता है और वह सड़क के एक किनारे खड़े होकर जहांँ किसी की कोई हानि होने की सम्भावना नहीं है जोर जोर से हँसता है । यद्यपि उस मनुष्य को इस काम से रोकने का अधिकार किसी को नहीं है, तो भी यह स्वंय इस बात का विचार कर सकता है कि सड़क पर आने जाने वाले लोगों को मेरे इस काम मे कोई असुविधा अथवा असंतोष तो नहीं होता । यदि ऐसा होतो उसे शिष्टाचार की दृष्टि से अपनी क्रिया बन्द कर देनी चाहिए । मनुष्य की ऐसी क्रियाएँ अनेक हैं जिनसे बहुधा दुसरों को संतोष और सुभीते का सम्बन्ध रहता है, इसलिए उसे अपने परस्पर जीवन-सम्बन्धी कार्यों में शिष्टाचार का ध्यान रखना परम आवश्यक है।

शिष्टाचार की थोड़ी-बहुत प्रवृति सभी लोगो में स्वाभाविक होती है। जो लोग शिष्टाचार के नाम से नाक-भों सिकोढ़ते हैं और उसे अनावश्यक नियमो का संग्रह समझते हैं ये भी बहुधा दूसरो