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पांँचवांँ अध्याय


सड़क पर खड़े होकर अथवा चलते हुए दूसरे घर की किसी स्त्री से बात-चीत करना अशिष्ट समझा जाता है। यदि कोई मनुष्य किसी विचारात्मक कार्य में लगा हो तो उसके पास ही जोर जोर से बात न करना चाहिये । रोगी मनुष्य से अधिक समय तक बात-चीत करना उसके लिये हानि-कारक है और उसमसे रोग की भयकरता का उल्लेख करना भयानक है । यदि तुम से कोई तुम्हारे अनुप- स्थित मित्र या सम्बन्धी को निन्दा करे तो तुम्हें उसे नम्रता पूर्वक इस कार्य से विरत कर देना चाहिए और यदि इतने पर भी वह न माने तो तुम्हें किसी मित्र से उस समय उसके पास से चले आना चाहिये । सम्भव है कि इससे उसे तुम्हारी अप्रसन्नता और अपनी मूर्खता का कुछ आभास हो जायगा । जो मनुष्य स्वय किसी दूसरे की अकारण निन्दा नहीं करता, उसके पास ऐसी निन्दा करने का औरो को भी बहुधा साहस नहीं होता । पर निंदक को सभ्य तथा शिक्षित लोग बहुधा अनादर की दृष्टि से देखते हैं।

किसी सभा या जमाव म अपने मित्र अथवा परिचित व्यक्ति से ऐसी भाषा का अथवा ऐसे शब्दों का उपयोग न करना चाहिये जिसे दूसरे लोग न समझ सके अथवा जो उनको विचित्र जान पड़े। ऐसे अवसर पर किसी विशेष विषय की अथवा अपने ही धंधे की या अपनी ही नौकरी की बातें करने से दूसरे लोगो को अरुचि उत्पन्न हो सकती है। यदि किसी विशेष अथवा गहन विषय पर बहुत समय तक सभाषण करने की आवश्यकता न हो, तो थोड़े- थोड़े समय के अन्तर पर विषय को बदल देना उचित होगा।

सभाषण में थोड़ा-बहुत विनोद आनंद देता है, पर उसकी अधिकता से बात-चीत म फीकापन आ जाता है। किसी को लक्ष्य बनाकर विनोद करना अशिष्ट और हानि-कारक है । बात-चीत म व्यक्ति-गत आक्षेप न आना चाहिये । बात-चीत करते समय भाषा

हि० शि०—५