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हीराबाई


बेचारा रामदेव शाही फ़ौज को देखकर घबरा गया और मुक़ाबले की ताक़त न देख, वह दिल्ली में हाज़िर होगया था। फिर बहुत सा नज़राना देकर उसने अ़लाउद्दीन को राजी कर लिया था। आख़िर, बादशाह ने अपनी फ़ौज के अफ़सर फ़तह ख़ां को देवगढ़ से घेरा उठाकर लौट आने का हुक्म लिख भेजा और रामदेव को बिदा किया था।

तीसरा परिच्छेद।

बहकावट।

"मृगमीनसज्जनानां तृणजलसन्तोषविहितवृत्तीनाम्।
लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति॥"

(नीतिशतके)

अ़लाउद्दीन कुछ पढ़ा लिखा न था, बादशाह होने पर उसने कुछ पढ़ना लिखना शुरू किया था; पर तौभी वह घमंडी इतना बड़ा था कि अपने तई सारी दुनियां से बढ़कर पंडित और समझदार समझता था। ज़ालिम वह ऐसा था कि क्या मक़दूर कि कोई उसकी बात दुहरा सके। कभी वह अपना नया मत चलाना चाहता, कभी सारी दुनियां को अपने तहत में लाने का मन्सूबा बांधता, कभी अपनी ही फ़ौज को आप कटवा डालता और